Thursday, 12 January 2012

Parinda परिंदा

|| परिंदा ||
था वो एक परिंदा
पर समझता रहा खुद को पतंग,
सीखा था उड़ना उसने
बंध कर डोर की सीमा में,
इशारों पे पतंगबाज के ;
काँप उठता था कल्पना करके 
डोर से अलग होने के बाद की अपनी गति |

   *         *         *

उस दिन जब अचानक
नियति ने उससे छीन  लिया
डोर का सहारा
और धकेल दिया खुले आसमान में ;
उसने पाया एक नया आकाश ,
एक नया सहारा, एक नया एहसास ;
आज वो आजाद था उन्मुक्त गगन में 
उड़ने को अपनी मर्जी  से
ऊपर, ऊपर और ऊपर,
और स्वच्छंद था नीचे जाने को भी,
आज वो उत्तरदायी था तो सिर्फ अपने प्रति,
न  की किसी  अनजाने पतंगबाज  के प्रति |  
   *       *       *