Monday, 5 August 2013

- माँ! जगाओ राम को

माँ! जगाओ राम को
जग छा रही रजनी अँधेरी ।
अतल-तम संधान हेतु
फूंक दे रण-बिगुल, भेरी॥
दीप नयनों में जला दे,
चेतना में ओज भर दे।
काट दे तम-पाश को,
फिर भोर-नव को एक स्वर दे ॥
सड़ित-लोकाचार, जड़ता
व्यूह घिर निश्चल पड़ा जग।
प्रात-नव में नव-धरा पर
नव किरण संचार कर दे॥  …

व्यक्ति-व्यक्ति की महत्ता
धूमिल है, निश्तेज श्रम है।
ज्ञान है पूंजी की दासी ,
अर्थ सत्, सब अन्य भ्रम है ॥
स्वार्थ की सत्ता चतुर्दिक,
हिंस्र है सामर्थ्यशाली ।
निर्धन, भुभुक्षु समाज
 सबके हाँथ खाली, पेट खाली ॥
स्वार्थ के हाँथों हृदय,
मष्तिष्क और विवेक अपहृत ।
मूल्य सब मृत-प्राय हैं,
है बंधुता-सद्भावना मृत ॥.… 

सौर-शौर्य जगा, हृदय में
लक्ष्य स्थापना कर दे ।
बाहु में बल, चित्त में
उत्कर्ष का संकल्प भर दे॥
प्राणी-मात्र सामान हो,
सबका सकल उत्थान हो,
सर्वजन हित, सर्वजन सुख,
सर्वजन हेतु सम स्थान हो ॥
ज्ञान, शक्ति, अर्थ सब पर
सबका सम अधिकार हो।
स्नेह से सद्भावना से
पूर्ण  हर व्यवहार हो ॥.…

ताप हरने  इस धरा के
नीर-निज करुना बहा दे।
शुष्क प्राण विराट जग में
हरित अभिलाषा जगा दे ॥

चेतना में ओज भर दे। 
दीप नयनों में जला दे॥

 - माँ! जगाओ राम को ।
हर नयन में है सो रहा जो
नींद बन कर ।।