Saturday, 2 November 2013

व्यक्तिगत वसीयत



















ऐसे गुजरे वो दिन
जिस दिन मुझे जाना हो -
कि तेरी एक मुस्काती सी छवि
सारे दिन फंसी रहे
मन के किसी कोने में  ।

कुछ बातें कर लूँ अपनों से;
दुआ कर सकूँ उनके खैरियत की।

न कोई जल्दी हो
यहाँ से जाने  की ,
और न कोई टीस
यहाँ कुछ छूट जाने की ।

हाँ, उस रोज जरूर देख सकूँ
सूरज को उगते हुए ;
 जरूर सुने हो मैंने
पंछियों  के किसी झुंड  की चहचहाहट ;
जरूर बतियाया होऊं मैं
किसी भोले नटखट बचपन से;
          
          और पानी दे सकूँ मैं आखिरी बार
गमले में खुद से लगाये किसी पौधे में ;
           और फिर सो जाऊं
एक हल्की  सी मुस्कान के साथ।

           क्या हर दिन ऐसे ही नहीं गुजर सकता ?
क्योंकि कौन जाने  कब चलना पड़ जाये ।