Saturday, 13 December 2014

वो खाली समय


मुझे समय मत दो...

वो खाली समय
जब मेरे पास करने को कुछ न हो,
सोंचने को कुछ न हो। 
जब मेरे इस ऊपरी
बाहर से ओढ़े हुए सतह में
कोई हलचल न हो। 
जब वर्तमान परिस्थितियों,
आवश्यकताओं
और कर्तव्यों का नशा,
उसका खुमार
टूटने लगे .…

मैं आप ही अपने अंदर उतरने लगता हूँ;
वहाँ मुझे मिलता है -
एक धुंधला कब्रिस्तान
जहाँ ताबूतों में दफ़्न हैं
मेरे ख्वाबों के मृत शरीर
जहाँ पंख कटे फड़फड़ा रहे हैं
मेरी उम्मीदें, मेरी हशरतें।
वहाँ मुझसे मिल जाते हैं
फर्श पर यूँ ही चकनाचूर हो बिखरे पड़े कई रिश्ते
जो कभी शीशे के फ्रेम में मढ़ कर
मैंने दिल के दीवारों  पे सजा रखे थे।
वहीं  से निकलती हैं
और भी कई अँधेरी सुनसान गलियां
जो पता नहीं कहाँ तक ले कर जाती हैं।
थोड़े ही और अंदर
कुछ ही दूरी पर
बह रही होती है एक नदी
प्रतिबिंबित करती हुई
आकाश का धुंधलका ....



















… बस मुझे बाहर खींच लो
अब मुझे एक पल भी यहाँ न रुकने दो
कहीं धुंधलके को चीड़ कर
सवेरा फिर से नदी में न चमकने लगे।
कहीं सूरज की कोई किरण
उस कब्रिस्तान को रौशन करने न निकल पड़े
मुझे डर लगता है
कि  रौशनी के किसी किरण के छूते ही
मेरे अंदर जो एक निर्वात है,
खालीपन है
मुझे महसूस होने लगेगा …


कई ख्वाब करवटें लेने लगेंगी
कई हसरतें जागने  लगेंगी
कुछ रिश्ते दिल के दरवाजे पर दस्तक देने लगेंगे

… मैं अपने अंदर फिर से जन्म लेने लगूँगा ।

मैं नहीं चाहता की की मेरी निगाहे
फिर से कोई ख्वाब देखे … फिर से उन्हें दफनाने के लिए;
मेरी हसरतों , उम्मीदों के नए पंख उग आए …
फिर से कट जाने के लिए;
मैं नहीं चाहता कि कोई रिश्ता मेरे दिल तक पहुँचे
फिर से टूट कर बिखर जाने के लिए।

… मैं अपने अंदर
जो मर हुआ सा कोई जिन्दा है
उसे फिर से जिन्दा करने से डरता हूँ ।