Thursday, 23 April 2015

उलझन

लिखने को तो जी बहुत कुछ चाहता है
पर डर लगता है
कहीं शब्दों की झाड़ियों में
जिंदगी उलझ कर न रह जाए।













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Thursday, 9 April 2015

तुम नहीं हो !



तुम नहीं हो !

गुलदान कोने में सहमा सा पड़ा है।
मुझसे पूछना चाहता है -
कब आओगे ?
कब जाओगे ?
पर पूछता नहीं।

तरस गया है- जिन्दा फूलों को।
ये प्लास्टिक के फूल-
न खिलते हैं ,
न मुरझाते हैं ,
जैसे के तैसे
समय काट रहे हैं।

समय ही तो काट रहे हैं-
ये गुलदान,
ये दरों-दीवार,
और मैं भी
जैसे के तैसे  .…





Sunday, 5 April 2015

प्रेम का अंकुर

                        1. 

अनसुनी यह कौन सी धुन छिड़ रही है 
छेड़ता है कौन मन के तार को फिर 
अंकुरण किस भाव का यह हो रहा है 
जागता क्यों है हृदय में राग नूतन। 

            भर रहा है दिल भरे मन प्राण जाते 
            दर्द सा क्या कुछ सुकोमल हो रहा है 
            हो रहे गीले नयन के कोर हैं क्यों - 
            टूटता तोड़े नहीं ये मोह बंधन। 

रास्ता मैंने चुना है जो अकेले 
संग मेरे कौन उसपर चल सकेगा 
जगत के नाते यहीं सब छूट जाते 
ध्येय तक फिर है वही निःसंग जीवन। 

            मगर पीछे क्या कहें क्या छूटता है 
            रोकता है कौन बढ़ कर पाँव मेरे  
            सब तरफ से आँधियाँ सी उठ रहीं हैं 
            डूबता - उतरा रहा हूँ मैं अकिंचन।



                        2. 

तूँ चला किस ओर सुन तो प्राण मेरे !
सत्य से मत मोर मुँह को प्राण मेरे !
प्रेम का अंकुर हृदय  में फूटने दे 
मत बना अपने हृदय को आज पत्थर। 

            बाँध मत खुद को तूँ  खुद के दायरे में 
            नीर बन कर तूँ  बरस जा प्राण मेरे !
            बह जिधर सूखी धरा तुझको पुकारे 
            खिल उठे हर भाव तेरा फूल बन कर। 

उस अकेली जीत का क्या फायदा है 
साथी सारे हार कर जब कर जब रो रहे हों 
कर सके तो कर दिखा यह प्राण मेरे !
संग सबको ले बढ़ा पग स्वर्ग पथ पर।