Wednesday, 23 September 2015

inspirations to cross the darkness of night


रात :
पर मैं जी रहा हूँ निडर
जैसे कमल
जैसे पंथी
जैसे सूर्य
क्योंकि
कल भी हम खिलेंगे
हम चलेंगे
हम उगेंगे


और वो सब साथ होंगे
आज जिनको रात ने भटक दिया है।
                                                   -धर्मवीर भारती


- गीता के सार सी मालूम होती हैं मुझे ये पंक्तियाँ । निराशा के क्षणों में ये पंक्तियाँ भाग्यवाद का विरोध किये बगैर उससे परे हो जाने का साहस देती है । हम निर्भीक हैं इसलिए नहीं की वक़्त सबकुछ ठीक कर देगा बल्कि इसलिए की हम हारे नहीं हैं हम अभी भी खिलने, चलने और उगने का माद्दा रखते हैं। रात्रि के विश्रान्ति के बाद जब हम फिर से तरो-ताजा होकर खिलेंगे, चलेंगे और उगेंगे तो हम अपनी हर खोयी हुयी उपलब्धियों को फिर से हासिल कर लेंगे।

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रामधारी सिंह दिनकर की ये पंक्तियाँ भी निराश होने की मनाही उसी तरह करतीं है जैसे William Wordsworth की ये पंक्तियाँ-





Monday, 21 September 2015

मलवा

अरे ! क्यों गिराते हो दीवारों को?
इनमें भी एक जीता जागता जीवन है!

क्या कहा - ?
सड़न है, दुर्गन्ध आती है,
सीलन है, दीवारें जर्जर हैं ,
कई जीवन कैद हैं इनके भीतर,
कई जीवन दफन हैं इनके नीव तले !

तो दो हथौड़ा-
मैं भी तुम्हारे साथ हूँ-
नेस्तनाबूत कर दें सब दीवार, सब मकान,
पर पहले इतना तो बता दो-
इसके बाद क्या करोगे ?
यहाँ नया महल बनाओगे,
नई इमारत खड़ी करोगे,
या सुन्दर सी कुटिया बनाओगे ?
या फिर बनाओगे यहाँ सुन्दर बगीचा, या समतल मैदान ?


....... अरे सुनो !
कम से कम ये मालवा तो साफ़ करते जाओ......!

Wednesday, 2 September 2015

दिल्ली से बिछुड़ते समय

मैं नहीं चाहूँगा 
की दिल्ली मेरे रग रग में बहे 
जरूरत बनकर।

मैं चाहूँगा की जैसे 
यादों की खुसबू बनकर 
मौके बेमौके महकते हैं 
देहरादून और नागपुर। 
या फिर दोस्तों के निश्चिन्त ठहाकों की तरह
जैसे कानों में कभी कभी गूंज जाता है हैदराबाद। 
वैसे ही किसी भूले बिसरे गीत की तरह 
मेरे पल दो पल को झनकाति हुई 
गुजर जाए ये दिल्ली....

क्योंकि जरूरत और मोहोब्बत
दो अलग अलग चीज हैं 
मोहोब्बत आजादी है 
जबकि जरूरत गुलामी....