Wednesday, 21 October 2015

रक्षक

बस बोलने भर से तुम रक्षक नहीं बन जाते
देश के इतिहास-भूगोल के
सभ्यता-संस्कृति के...

खुद को रक्षक मानते हो तो ये कुल्हारी?
क्या कहा?-
इस वाटिका की रक्षा के लिए ।
इसपे होने वाले हमले से लोहा लेने के लिए ।
बेडौल, बेतरतीब उग आये
झार-पतवार से निपटने के लिए ।
लेकिन मैंने तो तुम्हे अक्सर उन वट- पीपलों पे वार करते देखा है
जिनके छाँव तले
वाटिका पनपी है ।

नासमझों!
कुछ न समझ आये तो
कुल्हारी फ़ेंक दो
रक्षक होने का भाव छोड़ दो।
जब तक ये वट-पीपल हैं
चमकता सूरज है
धरती उर्वर है
वाटिका में पौधे उगते रहेंगे
नित नए-नए।





Saturday, 10 October 2015

कविता ऐसी भी क्या? किस काम की ?

तुम्हारा कवित्व सोना है -
उछालो उसे- खड़ा और चमकदार
- ताकि दुनिया गुणे ।

उसे गुदरी में क्या छिपाना
की कोई पहचान न सके
कोई डिटेक्टर लगाना पड़े -
विद्वान्-पंडित बुलाने पड़े
उसके गुण धर्म समझने के लिए।

सोना - ऐसा भी क्या?
किस काम का?

Thursday, 1 October 2015

ये कैसी लपलपाती आग है


ये कैसी लपलपाती आग है
जो जल रही है।
जिसके जद में खरगोश, चूहे, बिल्ली, आते हैं
और आते है घास, पतवार,
हिरन, बकरी, कुत्ते और सियार।

सब जल रहे हैं
उबल रहें हैं
और एक दूसरे को जला रहे हैं
झुलसा रहे हैं ।

किसी को एक चीटीं काट ले
तो जाग उठती है उसकी जलन
लपटें छोड़ता निकल पड़ता है
अपराधी की तलाश में
जलाने अपने जैसे किसी को
प्रतिशोध की आग में
वह नियंता सजा मुक़र्रर करता है
सजाये मौत बाटता फिरता है
अपने जैसे नाकारों के बीच।

पर हाथी और शेर
इस आग की चपेट में नहीं आते
वो तो इस आग की लपट पर
अपनी अपनी रोटिया और गोस्त सेंकतेे हैं।




राक्षस



आँख खोलोगे तो देखोगे की मैं नहीं हूँ
मैं बन गया हूँ एक राक्षस
क्योंकि मुझे सपना आया था
की मुझपे कोई अत्याचार हुआ है।