मैं
जब तक
सोता जगता था,
उठता बैठता था,
खेलता कूदता, खाता पीता था ;
इस कृत्रिमता से अछूते
कच्ची भूमि पे ,
कच्चे घरों में ,
कच्चे बर्तनों से ;
ये जीवन महकता था
एक सोंधी खुशबू से ।
* * *
आज जब रहने लगा हूँ
इस सभ्य समाज में ,
जहाँ एक अगोचर दूरी है
इंसान से इंसान के बीच ,
जहाँ आपसी सम्बन्ध
नियमों से परिभाषित हैं
प्यार से नहीं ,
जहाँ इजाजत नहीं
किसी को कुछ महशूश करने की ,
जहाँ ख्याल भी आते हैं
एक पटरी से बंध कर ,
जहाँ सपनों के उड़ान की भी
सीमा नियत है ,
जहाँ महत्वपूर्ण है की क्या दिखते हैं
इससे ज्यादा की क्या हैं ,
जहाँ मायने रखता है
की किससे कैसे पेश आते हैं ,
इससे ज्यादा की किसका कितना ख्याल रखते हैं ,
जहाँ सब एक दुसरे के प्रतिद्वंदी हैं ,
साथी नहीं ,
जहाँ हर साँस की एक कीमत है
वो भी अलग अलग ;
* * *
बेचैन रहता है अन्दर कोई मृग
उसी कस्तूरी की तलाश में .........
जब तक
सोता जगता था,
उठता बैठता था,
खेलता कूदता, खाता पीता था ;
इस कृत्रिमता से अछूते
कच्ची भूमि पे ,
कच्चे घरों में ,
कच्चे बर्तनों से ;
ये जीवन महकता था
एक सोंधी खुशबू से ।
* * *
आज जब रहने लगा हूँ
इस सभ्य समाज में ,
जहाँ एक अगोचर दूरी है
इंसान से इंसान के बीच ,
जहाँ आपसी सम्बन्ध
नियमों से परिभाषित हैं
प्यार से नहीं ,
जहाँ इजाजत नहीं
किसी को कुछ महशूश करने की ,
जहाँ ख्याल भी आते हैं
एक पटरी से बंध कर ,
जहाँ सपनों के उड़ान की भी
सीमा नियत है ,
जहाँ महत्वपूर्ण है की क्या दिखते हैं
इससे ज्यादा की क्या हैं ,
जहाँ मायने रखता है
की किससे कैसे पेश आते हैं ,
इससे ज्यादा की किसका कितना ख्याल रखते हैं ,
जहाँ सब एक दुसरे के प्रतिद्वंदी हैं ,
साथी नहीं ,
जहाँ हर साँस की एक कीमत है
वो भी अलग अलग ;
* * *
बेचैन रहता है अन्दर कोई मृग
उसी कस्तूरी की तलाश में .........
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