Tuesday, 20 March 2012

kasturi ki talash

मैं
जब तक
सोता जगता था,
उठता बैठता था,
खेलता कूदता, खाता पीता था ;
इस कृत्रिमता  से  अछूते 
कच्ची  भूमि  पे ,
कच्चे  घरों  में ,
कच्चे  बर्तनों  से ;
ये  जीवन  महकता  था
एक  सोंधी  खुशबू  से  ।

* * *

आज  जब  रहने  लगा  हूँ
इस  सभ्य  समाज  में ,
जहाँ  एक  अगोचर  दूरी  है
इंसान  से  इंसान  के  बीच ,
जहाँ  आपसी सम्बन्ध
नियमों  से परिभाषित  हैं
प्यार से  नहीं ,
जहाँ  इजाजत  नहीं
किसी  को  कुछ  महशूश करने  की ,
जहाँ  ख्याल  भी  आते  हैं
एक  पटरी  से  बंध  कर ,
जहाँ  सपनों  के  उड़ान  की  भी
सीमा  नियत  है ,
जहाँ  महत्वपूर्ण  है  की  क्या  दिखते  हैं
इससे  ज्यादा  की  क्या  हैं ,
जहाँ  मायने  रखता  है
की  किससे  कैसे  पेश  आते  हैं ,
इससे  ज्यादा  की  किसका  कितना  ख्याल  रखते  हैं ,
जहाँ  सब  एक  दुसरे  के  प्रतिद्वंदी  हैं ,
साथी  नहीं ,
जहाँ  हर  साँस  की  एक  कीमत  है
वो  भी अलग  अलग ;

* * *

बेचैन  रहता  है  अन्दर  कोई  मृग
उसी  कस्तूरी  की  तलाश  में  .........


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Images : courtsy google
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