Wednesday, 21 October 2015

रक्षक

बस बोलने भर से तुम रक्षक नहीं बन जाते
देश के इतिहास-भूगोल के
सभ्यता-संस्कृति के...

खुद को रक्षक मानते हो तो ये कुल्हारी?
क्या कहा?-
इस वाटिका की रक्षा के लिए ।
इसपे होने वाले हमले से लोहा लेने के लिए ।
बेडौल, बेतरतीब उग आये
झार-पतवार से निपटने के लिए ।
लेकिन मैंने तो तुम्हे अक्सर उन वट- पीपलों पे वार करते देखा है
जिनके छाँव तले
वाटिका पनपी है ।

नासमझों!
कुछ न समझ आये तो
कुल्हारी फ़ेंक दो
रक्षक होने का भाव छोड़ दो।
जब तक ये वट-पीपल हैं
चमकता सूरज है
धरती उर्वर है
वाटिका में पौधे उगते रहेंगे
नित नए-नए।





Saturday, 10 October 2015

कविता ऐसी भी क्या? किस काम की ?

तुम्हारा कवित्व सोना है -
उछालो उसे- खड़ा और चमकदार
- ताकि दुनिया गुणे ।

उसे गुदरी में क्या छिपाना
की कोई पहचान न सके
कोई डिटेक्टर लगाना पड़े -
विद्वान्-पंडित बुलाने पड़े
उसके गुण धर्म समझने के लिए।

सोना - ऐसा भी क्या?
किस काम का?

Thursday, 1 October 2015

ये कैसी लपलपाती आग है


ये कैसी लपलपाती आग है
जो जल रही है।
जिसके जद में खरगोश, चूहे, बिल्ली, आते हैं
और आते है घास, पतवार,
हिरन, बकरी, कुत्ते और सियार।

सब जल रहे हैं
उबल रहें हैं
और एक दूसरे को जला रहे हैं
झुलसा रहे हैं ।

किसी को एक चीटीं काट ले
तो जाग उठती है उसकी जलन
लपटें छोड़ता निकल पड़ता है
अपराधी की तलाश में
जलाने अपने जैसे किसी को
प्रतिशोध की आग में
वह नियंता सजा मुक़र्रर करता है
सजाये मौत बाटता फिरता है
अपने जैसे नाकारों के बीच।

पर हाथी और शेर
इस आग की चपेट में नहीं आते
वो तो इस आग की लपट पर
अपनी अपनी रोटिया और गोस्त सेंकतेे हैं।




राक्षस



आँख खोलोगे तो देखोगे की मैं नहीं हूँ
मैं बन गया हूँ एक राक्षस
क्योंकि मुझे सपना आया था
की मुझपे कोई अत्याचार हुआ है।

Wednesday, 23 September 2015

inspirations to cross the darkness of night


रात :
पर मैं जी रहा हूँ निडर
जैसे कमल
जैसे पंथी
जैसे सूर्य
क्योंकि
कल भी हम खिलेंगे
हम चलेंगे
हम उगेंगे


और वो सब साथ होंगे
आज जिनको रात ने भटक दिया है।
                                                   -धर्मवीर भारती


- गीता के सार सी मालूम होती हैं मुझे ये पंक्तियाँ । निराशा के क्षणों में ये पंक्तियाँ भाग्यवाद का विरोध किये बगैर उससे परे हो जाने का साहस देती है । हम निर्भीक हैं इसलिए नहीं की वक़्त सबकुछ ठीक कर देगा बल्कि इसलिए की हम हारे नहीं हैं हम अभी भी खिलने, चलने और उगने का माद्दा रखते हैं। रात्रि के विश्रान्ति के बाद जब हम फिर से तरो-ताजा होकर खिलेंगे, चलेंगे और उगेंगे तो हम अपनी हर खोयी हुयी उपलब्धियों को फिर से हासिल कर लेंगे।

...........................................................................





रामधारी सिंह दिनकर की ये पंक्तियाँ भी निराश होने की मनाही उसी तरह करतीं है जैसे William Wordsworth की ये पंक्तियाँ-





Monday, 21 September 2015

मलवा

अरे ! क्यों गिराते हो दीवारों को?
इनमें भी एक जीता जागता जीवन है!

क्या कहा - ?
सड़न है, दुर्गन्ध आती है,
सीलन है, दीवारें जर्जर हैं ,
कई जीवन कैद हैं इनके भीतर,
कई जीवन दफन हैं इनके नीव तले !

तो दो हथौड़ा-
मैं भी तुम्हारे साथ हूँ-
नेस्तनाबूत कर दें सब दीवार, सब मकान,
पर पहले इतना तो बता दो-
इसके बाद क्या करोगे ?
यहाँ नया महल बनाओगे,
नई इमारत खड़ी करोगे,
या सुन्दर सी कुटिया बनाओगे ?
या फिर बनाओगे यहाँ सुन्दर बगीचा, या समतल मैदान ?


....... अरे सुनो !
कम से कम ये मालवा तो साफ़ करते जाओ......!

Wednesday, 2 September 2015

दिल्ली से बिछुड़ते समय

मैं नहीं चाहूँगा 
की दिल्ली मेरे रग रग में बहे 
जरूरत बनकर।

मैं चाहूँगा की जैसे 
यादों की खुसबू बनकर 
मौके बेमौके महकते हैं 
देहरादून और नागपुर। 
या फिर दोस्तों के निश्चिन्त ठहाकों की तरह
जैसे कानों में कभी कभी गूंज जाता है हैदराबाद। 
वैसे ही किसी भूले बिसरे गीत की तरह 
मेरे पल दो पल को झनकाति हुई 
गुजर जाए ये दिल्ली....

क्योंकि जरूरत और मोहोब्बत
दो अलग अलग चीज हैं 
मोहोब्बत आजादी है 
जबकि जरूरत गुलामी....

Saturday, 22 August 2015

तूँ और मैं







"क्या दादा आप इस 4G के टाइम में अभी भी 2G गड्डी हाँक रहे हो ।"

"देखो दिल के मामले में सहूलियत से काम लेना चाहिए ।  प्यार को धीरे धीरे पनपने दो । धीमे आंच पर पकने दो । हर लम्हे को महसूस करो ।"

"अच्छा ! तो पहले आप decide कर लो की प्यार करना इम्पोर्टेन्ट है की महसूस करना । क्योंकि महसूस करने के लिए तो आपके पास समय की कोई कमी नहीं है। अभी खुद ही खुद के दिल में प्यार का पनपना महसूस करो फिर कुछ समय बाद दिल का दर्द महसूस करना। चाहो तो उस दर्द के सहारे जिंदगी गुजार लेना। लेकिन अगर प्यार को जीना चाहते हो तो थोड़ी स्पीड बढ़ाओ । कम से कम उसे पता तो चले की कोई उसे नोटिस कर रहा है। के कोई उससे कुछ कहना चाहता है । के कोई उससे कुछ कहने में हिचक रहा है । वो आज के जमाने की लड़की है । वही 4G स्पीड वाली । छोटी-छोटी महसूस करने वाली बातों पर उसका ध्यान नहीं जायेगा। आखिर नोटिस करे भी तो कैसे जिस ओकेशन पे तुम उसे एक फूल भेजोगे उसी ओकेशन पे उसके पास बीसों गुलदस्ते ,बुके पहुंचते हैं  । तुम्हारी एक सहमी हुयी सी hi! को उन अनगिनत hugs के भीड़ में आखिर वो कहाँ से याद रखे ।"


*      *      *
08/07/15
होगा वो ओल्ड फैशन , मुझे क्या । सीधे मुह खुल कर बात भी नहीं की उसने मुझसे आज तक । FB पे रिक्वेस्ट भेजा था वो भी अभी तक एक्सेप्ट नहीं किया। नम्बर भी तो है मेरा उसके पास कभी कॉल या कम से कम मैसेज भी तो करता । और कुछ नहीं तो मेरे ही शहर का है इतनी तो courtsy होनी ही चाहिये । बड़ा पढ़ाकू है तो रहा करे । यहां कौन सा किसी के भरोसे बैठे हैं ।


*     *       *

07/08/15
अजीब है । इंसान है की ट्यूब लाईट । भक -भक----भक-- झकास। एक दो हाय हेलो हुआ नहीं की सीधे आई लव यु। क्या हुआ की वो मेरे शहर का है। हमारे मम्मी पापा अच्छे दोस्त हैं। बचपन में हमारी अच्छी जान पहचान थी। पर उसने तो आज तक कभी मुझमे इंट्रेस्ट दिखाया ही नहीं। और इस तरह अचानक । I simply can't believe it. Such a nut.


*     *      *


"क्या दादा ! ऐसे थोड़े होता है ।
वो भी क्या सोंचती होगी। बिलकुल पागल है ।
सीधे प्रोपोज़ कर दिया। आखिर ऐसी भी क्या जल्दी थी। थोडा तो....
 "
......to be continued........


My entry for http://www.airtel.in/4g/

Image from airtel 4g ad.

Saturday, 4 July 2015

नजरिया -: सिलसिला

हर कलाकार अपनी कला के माध्यम से जिंदगी को समझने-समझाने की कोशिश करता है । कहीं एक पहलू तो कहीं दूसरे पहलू को विस्तार देता है ताकि उसकि कई बारीकियों तक हमारी निगाह पहुँच सके । कला के ग्राहक वर्ग में हर एक आम इंसान होता है जो उसमें अपनी और अपने आस-पास की जिंदगियों और उसके विभिन्न दृश्यों को कलाकार के दृश्टिकोण से मगर अपनी नजरों से देखता है, समझता है, महसूस करता है । यहाँ मैं अपनी नजरो से प्रस्तुत कर रहा हूँ-

              
फिल्म - सिलसिला






"नयनों  में  निंदिया 
निंदिया  में सपने 
सपनों  में साजन -
जब से  बसा ,
बहारें आई जीवन  में 
नयी  हलचल  है  तन-मन में ....."
       
          - शेखर (शशि) और शोभा (जया) किसी बाग़ में चंद खूबसूरत लम्हे सहेज रहे हैं। शेखर कश्मीर में पोस्टेड एयर-फोर्स का फाइटर पायलट है।  वह या तो आकाश में होता है या धरती पर। आकाश - ड्यूटी है; तो  धरती- शोभा अमित और rum.

अगली बार जब पार्क  में दोनों होते हैं तो अमित के आवाज की एंट्री होती है; शेखर शोभा को अपने  भाई अमित  की रिकॉर्डिंग सुनाते  हैं  -

"जिन राहों में तेरे साथ गुजरने की तमन्ना थी
आज उन राहों से मैं  तनहा गुजर आया 
चारों तरफ एक ऐसा सन्नाटा है 
कि आदमी खुद से भी बात न कर सके 
मैं अकेला 
तनहा 
पूछता हूँ 
वो कौन है जो 
इन हसीं मनाज़िर से पड़े 
वक़्त की  गिरफ्त से बाहर 
मेरा इंतजार  कर रहा है 
वो कौन है "

       -खुरदुरी  सी आवाज में दर्द , दर्द में एक मीठापन -एक  तलाश। 

उधर अमित को एक दोस्त की शादी में उसकी चुलबुली सी चांदनी (रेखा) मिल जाती है।  उसे अमित का पहला तोहफा मिलता है -गुलाब के एक गुच्छे के साथ उसी खुरदुरी आवाज में एक तजवीज़- कि हर महीने ऐसा एक गुलदस्ता आपके लिए होगा। -प्यार का इतना प्यारा वादा कानों में जैसे संगीत घोल देता है।

भाई अमित को खुशनुमा मौसम का हवाला दे कर कश्मीर बुलाता है। अमित पंहुचा तो जनाब खुद गायब - ड्यटी है भई।
शोभा एयर पोर्ट पर अमित को देखते ही पहचान लेती है- "लम्बा ,चौड़ा, ऊँचा - आँखों में जिंदगी की चमक - आवाज जो सुनते ही दिल में उतर जाए -" 
 गाड़ी चलती है - बातें चलती है- अपनी और भाई के पुराने दिनों की यादें - कैसे दोनों हर काम साथ करते थे यहाँ तक की उन्हें पहला प्यार भी एक साथ और एक के ही साथ हुआ।
बोतलें खुलती है - बातें चलती हैं - बीते दिनों की यादें।
कभी तीन-अमित, शेखर और शोभा; तो कभी दोनों भाई, कुछ समय यूँ ही गुजर जाता है।

                        *                      ***                         *

            फूल उस खुरदुरी आवाज के साथ चांदनी तक फिर से पहुँचते हैं -

"कश्मीर की वादी में 
अनजाने में कई बार 

आपका नाम पुकारा है- 
चांदनी … चांदनी…, 
कल दिन भर मैं आपके नाम के साथ-
अपना नाम लिखता रहा। 
दो लफ्ज हैं तनहा - अकेले 
लेकिन एक साथ लिख दियें जाएँ 
तो एक दुनिया  
एक कायनात 
एक तलाश 
एक लम्हा 
एक खुशी 
बन  सकते हैं "

कानों में  फिर से जैसे कोई  संगीत घुल जाता है -

"वहमों -गुमान से दूर दूर 
यकीं के हद के आस पास  
दिल को भरम  ये हो गया -
उनको हमसे प्यार है……" 

अमित के आवाज में एक डायलॉग और सुनते हैं -

"साँस लेना - साँस लेते रहना - 
जिंदगी नहीं है, जिन्दा रहने की आदत है.… 
एक शून्य हो तुम लोग -
शून्य से शुरू होकर - शून्य पर ख़त्म हो जाते हो। 
जो तुम सोंचना चाहते हो सोंच नहीं सकते - 
जो तुम कहना चाहते हो कह नहीं सकते -
जैसे तुम जीना चाहते हो जी नहीं सकते। 
जब तुम चिल्लाते हो -तो तुम्हारी आवाज पलट कर नहीं आती 
प्यार, मोहब्बत, दोस्ती , देश -प्रेम -- सब के सब खोखले शब्द हैं;
इनका हकीकत से कोई वास्ता नहीं। 
अब भी वक़्त है 
वो तुम्हे बुला रहा है -उसे ध्यान  सुनो -
डरो नहीं ,
अपने आप से  श मिन्दा मत हो ,
आवाज सुनो-
आवाज दो - कि  तुम आजाद हो 
इंकार की नींव डालो 
कहो - कि  बनावट की जिंदगी ,
झूठ की जिंदगी ,
फरेब की जिंदगी -
तुम नहीं जी सकते 
अपनी अपनी खिड़किया खोलो 
बहार निकलो -
और चिल्लाओ- कि  हम आजाद हैं ,
पुकारो कि- हम आजाद हैं ,
आवाज दो कि हम आजाद हैं ,
… हम....   आ...जा......द…   हैं ........"  

   बात है की अमित जी नाटककार हैं।  अभी वो मंच पर अपने नाटक के पक्ष में समा बांध रहे थे और दर्शक दीर्घा की अगली पंक्ति में ही उनकी चांदनी जी बैठी हुई थे।  मंचन पूर्ण होते ही हॉल तालियों से गूंज उठता है। लौटते वक़्त अमित और चांदनी की चाहत अगले पड़ाव तक कुछ इस तरह पहुचती है  -
-'वो बात जो मैं आपसे कहना चाहता हूँ कह दूँ ?' 
-'वो बात जो मैं सुनना चाहती हूँ कह दीजिये।'
पर इस लफ्फाजी में इजहारो -इकरार  अधूरा ही रह जाता है।

आगे खूबसूरत लम्हों से सजे कुछ यादगार मुलाकातों का दौर चलता है-

"… ओस बरसें - 
रात भींगे- 
होंठ थर्राए 
धड़कनें कुछ 
कहना चाहें -
कह नहीं पाए 
हवा का गीत मद्धम है 
समय की चाल भी कम है..... "

                                 *                                           *                                            *

          जिंदगी कितनी खूबसूरत है- "कश्मीर की वादियों की तरह"-"फूलों की तरह'"। परन्तु युद्ध सबकुछ तहस-नहस कर डालता है। पूरी की पूरी वादी सुलगने लगती है। जड़, तना, पत्ते तो क्या फूल तक झुलस जाते हैं। जानते हुए भी की फिल्म है पूरे शरीर में झुरझुरी सी फैल जाती है। टीवी सेट में समाचार आता है कि  फिरोजपुर सेक्टर में दुश्मनो के चार जंगी जहाज गिरा कर स्क्वा. लि. शेखर मल्होत्रा शहीद हो गए। एक दुनिया डूब गई। चीख,रुदन फिल्म के परदे से ज्यादा दर्शक के खुद के अंदर मच जाती है -

"पिछली जंग ने मेरे पिताजी  मुझसे छीन लिया - मैं नहीं रोया।  
मेरी माँ इस दुःख को बर्दास्त न कर सकी - उस गम को भी मैं झेल गया- मैं नहीं रोया।  
क्योंकि  मेरी माँ , मेरा बाप, मेरा दोस्त, मेरा यार - मेरा भाई मेरे साथ था। 
-लेकिन आज मैं लुट गया  - यतीम हो गया। ''

       ऐसे  समय में शोभा पर जो बीती उसका कहना ही क्या।  अमित पर एक दूसरा पहाड़ तब टूट पड़ता है जब उसे पता चलता है की शोभा प्रेगनेंट है। अमित शोभा को समझाना चाहता है पर सवालों के उहापोह में वह खुद घिर जाता है. समय के एक छन की  यह उथल-पुथल उसकी जीवन के धारा को तोड़- मड़ोड़ कर रख देती है। शेखर के अतीत को भविष्य के मंजिल तक पहुचाने का फ़र्ज़  वह अपने ऊपर ओढ़ लेता है। जो अबतक उसका वर्तमान था, अतीत बन जाता है।  .....

                                     *                         *                          *

         चांदनी अमित का खत पढ़ रही है -

…… तुम मेरी हमसफ़र न सही ……हम दो कदम तो साथ चले थे……उन कदमों की कसम ……उन वादो की कसम ……उन वादों की कसम……मुझे भूल जाना चांदनी…… भूल जाना ……'

           एक और दुनिया डूब जाती है -

"…आंसुओं में 
चाँद डूबा 
रात मुरझाई 
ज़िन्दगी में 
दूर तक 
फैली है तन्हाई 
जो गुजरे हम पे वो कम है
तुम्हारे गम का मौसम है…"  

                    *                                      *                                        *

       अमित और शोभा जैसे अपने- अपने हिस्से का एक कर्ज ढो रहे हैं। जैसे दोनों की जिंदगी किसी बंद अँधेरी गुफा में भटक गयी हो … प्रकाश बस सपनों-यादों में कभी कभी चमक जाता है।  आँखों के सामने तो बस अँधेरा ही अँधेरा है … दोनों एक दूसरे से बंध तो गए हैं अब यदि साथ मिलकर रौशनी को तलाशें तो शायद इस अंधी गुफा का मुहाना मिल भी जाए लेकिन पिछली यादों की चकाचौंध रह-रह कर आँखे सुन्न कर जाती हैं। यादों के सामने हकीकत को कोई कैसे नकार सकता है। प्रकृति ऐसा होने नहीं देगी। यदि कोई जबरन नकारना चाहे तो सपनों पे हक़ीक़त की जबरदस्त चोट पड़ती है - अमित और शोभा का एक्सीडेंट हो जाता है। एक्सीडेंट में ये दोनों तो बच जाते हैं पर शोभा के पास जो बीते दिनों की - शेखर की अमानत थी वो चल गुजरती है। लगने लगता है कि यह इमोशनल झटका इन दोनों आपस में थोड़ा करीब ले आएगा। अमित कर्त्तव्य के तौर पर शोभा का ध्यान रखने  लगता है।  शोभा पहले तो अमित को इसके लिए आदर देती है पर धीरे-धीरे उसे अपना मानने लगाती है। किन्तु  बीते दिन आस पास ही मंडरा रहे थे - हॉस्पिटल में जिस डॉक्टर ने दोनों का इलाज किया है वो महाशय चांदनी के पति हैं। चांदनी जो खुद भी यादों को पीछे छोड़ने के जद्दोजहद में थी, एक्सीडेंट की खबर सुनकर खुद को रोक नहीं पाती है और अमित से मिलने हॉस्पिटल चली आती है - भूत फलक पर ऐसे छाने लगता है कि वर्तमान को ढँक ले। अमित बार-बार अवश अतीत को आवाज दे बैठता है -

"हादसा बन के कोई ख्वाब बिखर जाए तो क्या हो !
वक़्त ज़ज्बात को तब्दील नहीं कर सकता 
दूर हो जाने से अहसास नहीं मर सकता 
ये मोहोब्बत है दिलों का रिश्ता 
ऐसा रिश्ता जो जमीनों की तरह 
सरहदों में कभी तक़सीम नहीं हो सकता
तूँ किसी और की रातों का हँसी चाँद सही -
मेरी दुनिया के हर रंग में शामिल तूँ  है 
तुझसे रौशन हैं मेरे ख्वाब - मेरी उम्मीदें -
मैं किसी राह से गुजरूँ मेरी मंजिल तूँ है  "

उत्तर में एक विवश इंकार मिलता है-
"बहुत देर हो चुकी है अमित.... अतीत को आवाज मत दो .... तुम्हारी पत्नी है .... मेरे पति हैं .... दो घर उजरते देख सकते हो....?"
लेकिन यह इंकार रेत पर खिंचे लकीर से ज्यादा कुछ न था जो दिलों में उठते तूफानी लहरों के सामने कहीं न था। दोनों जिंदगियाँ अपने अतीत से बहाने बे-बहाने खुल कर मिलने लगी। वर्तमान में अतीत का प्रवेश आज के साथ नाइंसाफी है।  आखिर वर्तमान कब तक इससे अनजान रहता- पहले थोड़ा खटका हुआ। नजर के देखे को भी दिल झुठलाने की कोशिश करता रहा। लेकिन कब तक। अतीत का भूत दोनों के सर पर ऐसे सवार हुआ की वर्तमान उनके आँखों से ओझल होने लगा।  बंधन लगने लगा। एक समझौता लगाने लगा । और एक दिन उन्होंने वर्तमान को छोर कर अतीत के साथ रहने का फैसला ले लिया। वर्तमान ने चाह कर भी उन्हें नहीं रोका क्योंकि वर्तमान को अपने ऊपर विश्वास था। जाने वालों को जबरदस्ती रोक रखने का हठ वो करते हैं जिन्हे अपने प्रेम पर विश्वास न हो। वर्तमान किसी के लिए बंधन नहीं बनना चाहता था।

           डॉ. साहब ने चांदनी को खुद ही राह दे दी।  बॉम्बे जाते समय चांदनी से उनके उखड़े उखड़े  वार्तालाप का समापन कुछ इस तरह हुआ -
 "….... तुम्हे छोड़ने को जी नहीं कर रहा। मुझे उम्मीद है.… जब मैं घर वापस लौटूंगा तो तुम मुझे यहीं खड़ी मिलोगी। "     

         शोभा ने भी अमित को नहीं रोका - 
"....... मम्मी ! एक बार तरस खा कर उन्होंने मुझसे शादी की थी।  उसका नतीजा तुम भी देख रही हो। और मैं भी।  मैं चाहती हूँ अगर वो आना चाहें तो अपनी मर्जी से।  किसी समझौते या बहाने के सहारे नहीं। "
         समय फिर से एक पिछले मोड़ पर खड़ा था। वह फिर से माँ बनने वाली थी पर वह इस खबर को अमित को खुद से बांधने  के लिए जंजीर नहीं बनने देना चाहती थी।

         लेकिन  डा. साहब को लौटने के समय चांदनी का उनका इन्तजार न कर रही होना शायद मंजूर न था -उनके प्लेन का क्रैश हो जाता है। समय के एक क्षण में फिर से भयंकर उथल-पुथल होती है। अमित और चांदनी दोनों अतीत के स्वस्प्न से जैसे आक्समात् जागते हैं। वर्तमान जब धूं -धूं कर जल रहा हो तो अतीत के स्वप्न का सहारा कोई कब तक लिए रह सकता है। अमित डा. साहेब को बचा पाने की उम्मीद में क्रैश-शाईट पे आग में कूद पड़ता है। शोभा समय के आवेग में अमित को अपने होने वाले बच्चे की कसम देकर रोकना चाहती है। लेकिन आज अमित को वर्तमान की अहमियत का पता चल चुका है। उसे आज वर्तमान के ऊपर विश्वास है।उसे यकीं है की वह चांदनी का वर्तमान उसे लौटा कर अपने वर्तमान के पास वापस आ सकेगा।  और ऐसा होता भी है। आज अमित समझ चुका है की -जिंदगी में सबसे ताकतवर समय कोई है तो वो है वर्तमान। अथवा यह कहें जिंदगी वर्तमान ही है।  वर्तमान ही जीवंत है। भूत को वर्तमान पर हावी होने देना अपराध है - वक़्त के प्रति , जिंदगी के प्रवाह के प्रति।  यह प्रवाह ही तो जीवन है।  वर्तमान में जीना ही आजादी है- काल के बंधन से दिशाओं के बंधन से।
                "मैं  आ गया हूँ शोभा। आया हूँ तो सारी दीवारें तोड़ कर आया हूँ।  अपने अतीत की, अपने प्यार की ,अपने समझौतों की… अब इसके बाद बस एक बात याद रखना -तुम मेरी पत्नी हो , मैं तुम्हारा पति हूँ,  यही सच है , बाकी सब झूठ ..... " नेपथ्य में फिर से संगीत घुल जाता है। 

Sunday, 3 May 2015

वक़्त की कूची- जिंदगी के कैनवस



क्यूँ ठिठक सा गया वक़्त
मेरी जिंदगी के कैनवस पे
अपनी कूचियों से रंग भरते-भरते।

.... दूर आकाश में चमकते सितारों के
चकाचौंध सपने मैं  कहाँ मांगता हूँ-
धूसर मिटटी का रंग तो भर देते।

....  कहीं-कहीं मौके-बेमौके कुछ बारिश-
कुछ हरियाली,
सर के ऊपर एक अरूप आकाश
और आँखों के सामने कुछ दूरी पर
केशरिया क्षितिज ;
क्या इतना भी ज्यादा था?

              ---

हर अँधेरी रात के बाद
एक सुबह दिखने का
तुम्हारा ही तो वादा था।
.... तो क्या इस रात तुम खुद सो गए ?
या तुम उकता गए हो
इस लम्बी जिंदगी में
मिला-जुला एक सा ही रंग भरते-भरते ?

कुछ भी हो !
इस अँधेरी सुरंग में मैं और नहीं ठहर सकता।
मुझे इस सस्पेंडेड स्टेट से बाहर निकालो  ……
चाहे कैसा भी रंग भरो -
इस तस्वीर को ,
मेरी कहानी को
मुकम्मल तो करो।

Saturday, 2 May 2015

           कविता के पाठकों का घटते जाना हाल के समसामयिक गोष्ठियों में चर्चा में बना रहता है। लोग चिंतित दिखते हैं की आज अभिव्यक्ति की बढ़ती सुगमता के साथ कविता के लिखे जाने और और उसके आम जान के दृष्टि फलक तक पहुँच में काफी इजाफा तो  हुआ है परन्तु उनकी गुणवत्ता में काफी ह्रास हुआ है और उस अनुपात में कविता के पारखी, उनको पढने-सुनने वालों और गुणने वालों की संख्या में बढ़ोत्तरी नहीं हुई है।  कारण चाहे जो भी हो, मेरा कथ्य यहाँ यह है की क्या समाज में कविता लिखे जाने की कोई उपादेयता नहीं है।

             यह सही है की सुज्ञ पाठक का एक बड़ा वर्ग होने से स्तरीय कवितायेँ और कवि उभर कर फलक पर आते हैं तथा उनका सम्मान होता है। इस तरह साहित्य भी समृद्ध होता है और समाज को एक दिशा भी प्रदान करता है।  ऐसी कवितायेँ पाठकों के अंतर को उद्वेलित कर एक सामाजिक आंदोलन खड़ा कर सकती हैं। किंतु यह सारा प्रभाव कविता के पढ़े जाने का है, तो उसके लिखे जाने के भी तो कुछ प्रभाव होंगे ?  यहाँ यह कहा  जा सकता है की कविता एक अभिव्यक्ति का माध्यम है और अभिव्यक्ति की पूर्णता तभी है जब कोई उसे ग्रहण करे।  किंतु यदि कविता के इस रूप(role) के विस्तार में कोई कमी आई है तो इसका कारण है की उसने हाल में उभर कर आये अभिव्यक्ति के कई नए माध्यमों को विस्तार के लिए जगह (space) दिया है  

             सोंचा जाए तो कविताओं का लिखा जाना भी स्वयं में एक वांछित तत्व है। हर काव्य व्यक्ति द्वारा स्वयं की पूर्णता की और बढ़ाया गया एक कदम है। हर एक कविता द्वारा वह अपने व्यक्तित्व और अपने अस्तित्व के अलग-अलग पहलुओं को समझने की कोशिश करता है। सृजन के वो क्षण , खुद के साथ समग्रता से बिताये गए वो क्षण , एकांत- एकाग्रता के वो क्षण व्यक्ति को अलग ही दुनियां में ले जाते हैं, जहाँ से वह अनुभूतियों की नदी में नहा कर - तरोताजा हो कर लौटता है। वहां से वह अपने साथ एक नयी सोंच भी लेकर आता है।  कभी वह वहां से एक सकारात्मक ऊर्जा ले कर आता है तो कभी अपनी नकारात्मकता से छुटकारा ले कर आता है। आज के इस व्यस्त भाग-दौड़  भरी जीवन प्रणाली में ऐसे क्षणों के महत्व को अनदेखा नहीं किया जा  सकता। ये क्षण व्यक्ति को मानसिक स्तर पर संतुलित बनाये रखने में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं।

            हम यहाँ खेल जगत से एक उदहारण ले सकते हैं। कोई भी खेल हो - मान लिया दौड़ , क्रिकेट , फुटबॉल या कुछ और। माना की स्तरीय खिलाडी बड़ी-बड़ी प्रतिस्पर्धाओं में मुकाम हासिल कर नए कीर्तिमान स्थापित करते हैं।  किन्तु क्या एक बच्चे द्वारा उस खेल में हिस्सा लेने का बस इतना ही महत्त्व है की एक दिन वह बड़ा खिलाड़ी बनकर अपना और देश का नाम रौशन करेगा। नहीं , उसका खेल में भाग लेना उसके सम्पूर्ण शारीरिक और मानसिक विकास के लिए आवश्यक है जो समाज की सुदृढ़ता के लिए भी वांछित है। इसी तरह कविताओं का लिखा जाना अपने आप में भले समाज में किसी अमूल -चूल परिवर्तन या क्रांति लेन में सहायक न हो किन्तु अपने व्यष्टिगत प्रभावों के द्वारा यह समाज के विकास में और उसको व्यवस्थित बनाये रखने में सहायता तो करता ही है। मायने की कविता के लिखे जाने का प्रसार भले ही काम वांछित हो पर वांछित तो है ही, और चिंता का विषय तो बिल्कुल नहीं है। 



Thursday, 23 April 2015

उलझन

लिखने को तो जी बहुत कुछ चाहता है
पर डर लगता है
कहीं शब्दों की झाड़ियों में
जिंदगी उलझ कर न रह जाए।













read this in the context of my previous blog post

Thursday, 9 April 2015

तुम नहीं हो !



तुम नहीं हो !

गुलदान कोने में सहमा सा पड़ा है।
मुझसे पूछना चाहता है -
कब आओगे ?
कब जाओगे ?
पर पूछता नहीं।

तरस गया है- जिन्दा फूलों को।
ये प्लास्टिक के फूल-
न खिलते हैं ,
न मुरझाते हैं ,
जैसे के तैसे
समय काट रहे हैं।

समय ही तो काट रहे हैं-
ये गुलदान,
ये दरों-दीवार,
और मैं भी
जैसे के तैसे  .…





Sunday, 5 April 2015

प्रेम का अंकुर

                        1. 

अनसुनी यह कौन सी धुन छिड़ रही है 
छेड़ता है कौन मन के तार को फिर 
अंकुरण किस भाव का यह हो रहा है 
जागता क्यों है हृदय में राग नूतन। 

            भर रहा है दिल भरे मन प्राण जाते 
            दर्द सा क्या कुछ सुकोमल हो रहा है 
            हो रहे गीले नयन के कोर हैं क्यों - 
            टूटता तोड़े नहीं ये मोह बंधन। 

रास्ता मैंने चुना है जो अकेले 
संग मेरे कौन उसपर चल सकेगा 
जगत के नाते यहीं सब छूट जाते 
ध्येय तक फिर है वही निःसंग जीवन। 

            मगर पीछे क्या कहें क्या छूटता है 
            रोकता है कौन बढ़ कर पाँव मेरे  
            सब तरफ से आँधियाँ सी उठ रहीं हैं 
            डूबता - उतरा रहा हूँ मैं अकिंचन।



                        2. 

तूँ चला किस ओर सुन तो प्राण मेरे !
सत्य से मत मोर मुँह को प्राण मेरे !
प्रेम का अंकुर हृदय  में फूटने दे 
मत बना अपने हृदय को आज पत्थर। 

            बाँध मत खुद को तूँ  खुद के दायरे में 
            नीर बन कर तूँ  बरस जा प्राण मेरे !
            बह जिधर सूखी धरा तुझको पुकारे 
            खिल उठे हर भाव तेरा फूल बन कर। 

उस अकेली जीत का क्या फायदा है 
साथी सारे हार कर जब कर जब रो रहे हों 
कर सके तो कर दिखा यह प्राण मेरे !
संग सबको ले बढ़ा पग स्वर्ग पथ पर।
  





Saturday, 21 March 2015

निंदिया


निंदिया के घरौंदों में सपनों को बुला लेना
पलकों के किवाड़ों को हौले से सटा लेना ।
टूटे न देखो ये निंदिया …
मोती से नयनों की निंदिया …
सपनों-सपनों मचलती ये निंदिया … ।।

हिडोले पे मद्धम सुरों के - ख्वाबों की अनगिन कहानी
सांसों की तुतली जुबानी - मन ही मन में सुना देना
पलकों के किवाड़ों को  हौले से सटा लेना ।
टूटे न देखो ये निंदिया …
नाजुक सी ज्यूँ बंद कलियाँ …
चाँद - तारों गुजरती ये निंदिया … ।।


उजला सवेरा उगेगा - रात के पार वाली जमीं पर
रात काली अँधेरी है तो क्या - ख़्वाब में है चमकता हुआ कल
यूँ अंधेरों से जब सामना हो - दीप दिल में जला लेना
पलकों के किवाड़ों को - हौले  से सटा लेना ।
टूटे न देखो ये निंदिया …
थक के सोती सुरीली सी निंदिया …
ख्वाब कल की संजोती ये निंदिया.... ।



Saturday, 24 January 2015

।। वासंती ।।

            टूटे तार
            खंड-खंड स्वर
            राग विखंडित
            क्षिप्त रागिनी
ऐ मृदुले! जीवन के सुर-
            संयोजित कर दे ।।

           टूटे-फूटे छंद
            भाव बिखरे-बिखरे से
            रस की सरिता सूखी सी
            सब शब्द अनमने
            भटका हुआ कहन
            कथन सब बासी-बासी
            काव्य प्रवाह शून्य
            जीवन पर्यन्त उदासी
सरस! सुकोमल शुद्ध भाव से
            हृदय ताल भर दे ।।

            लोक-जगत
            सब विद्रूप अंकित
            सब दिक् - मौसम
            धूसर रंजित
            दिवस-निशा
            सब अलसाये से
दे! अब कुछ
            जागृति  के क्षण दे


वासंती ! इन नयनों में
            सौंदर्य बोध भर दे ।।



Tuesday, 13 January 2015

जीवन साथी के लिए -

 मैं सुन नहीं पाया 
तुम्हारे क़दमों के लय को 
पहचान नहीं पाया 
तुम्हारे दिल के तरंग
को 
तुम्हारे कंठ के उमंग को 
बस इन्तजार करता रहा 
कि तुम मेरे लिए 
कोई प्रेम गीत गाओगी 
और तुम्हारा जीवन संगीत 
मेरे लिये अनसुना रह गया।

Sunday, 4 January 2015

चांदनी के नशे में

यूँ चांदनी पीते-पीते हम तुम
किस नशे में उड़ चले हैं
चाँद तक
तारों तक
तारों के एक गुच्छे से  दूसरे गुच्छे तक
कई मन्दाकनियों को पार कर
ब्रह्माण्ड के एक छोड़ से दूसरे छोड़ तक.…












आओ न !....
यहीं, इस मंदाकनी के किनारे
नव-तारों के बागीचे के बीचो-बीच
एक प्यारी सी कुटिया बनाते हैं।
तुम हर सुबह
मेरे केशों में सजाने को
ओस बिछे घाँस पर से
टूटे तारे चुन कर लाया करना …
मेरे केशों में
मालती के फूल से वो तारे
तुम्हे बहुत पसंद आएंगें न …

ऐसे ही किसी दिन
तुम रास्ते पर बिखरे
कुछ छुद्र ग्रह बटोर लाना
मैं उनको कूट-पीस कर
हथेलियों में मेंहँदी रचा लूँगी
और आँगन की लताओं पे लगे
रक्तिम तारों के रस से
पावों में महावर भी लगा लूँगी  ...
मेरी दोनों सूनी कलाइयों के लिए
वृहस्पति और शनि के वलय मँगवा लेना
और ध्रुव तारे का एक टीका भी बनवा देना … 
फिर उस ढलती साँझ को
सूरज की लाली से
मेरी कोरी माँग भर देना …
मुझे सदा सुहागन का आशीर्वाद देने
सप्तर्षि-गण भी आएँगें न ...


फिर उसी रात
दुग्ध मेखला में लिपटी
लाज से दोहरी
जब मैं तुम्हारे पास आऊँ
तो जुगनू सा टिमटिमाता चाँद
जो तुमने कुटिया के छत से टाँक रखा है
मेरी हथेली में रख देना …
मैं उसे तुम्हारा प्रथम उपहार मान कर
सहेज कर अपने पास रख लूँगी
ताकि चाँदनी का यह नशा
कभी न उतरे। है न …




 
Images : courtsy google
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...