|| परिंदा ||
था वो एक परिंदा
पर समझता रहा खुद को पतंग,
सीखा था उड़ना उसने
बंध कर डोर की सीमा में,
इशारों पे पतंगबाज के ;
काँप उठता था कल्पना करके
डोर से अलग होने के बाद की अपनी गति |
* * *
उस दिन जब अचानक
नियति ने उससे छीन लिया
डोर का सहारा
और धकेल दिया खुले आसमान में ;
उसने पाया एक नया आकाश ,
एक नया सहारा, एक नया एहसास ;
आज वो आजाद था उन्मुक्त गगन में
उड़ने को अपनी मर्जी से
ऊपर, ऊपर और ऊपर,
और स्वच्छंद था नीचे जाने को भी,
आज वो उत्तरदायी था तो सिर्फ अपने प्रति,
न की किसी अनजाने पतंगबाज के प्रति |
* * *
था वो एक परिंदा
पर समझता रहा खुद को पतंग,
सीखा था उड़ना उसने
बंध कर डोर की सीमा में,
इशारों पे पतंगबाज के ;
काँप उठता था कल्पना करके
डोर से अलग होने के बाद की अपनी गति |
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उस दिन जब अचानक
नियति ने उससे छीन लिया
डोर का सहारा
और धकेल दिया खुले आसमान में ;
उसने पाया एक नया आकाश ,
एक नया सहारा, एक नया एहसास ;
आज वो आजाद था उन्मुक्त गगन में
उड़ने को अपनी मर्जी से
ऊपर, ऊपर और ऊपर,
और स्वच्छंद था नीचे जाने को भी,
आज वो उत्तरदायी था तो सिर्फ अपने प्रति,
न की किसी अनजाने पतंगबाज के प्रति |
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