काफ़ी देर से वो दूर क्षितिज के उस छोड़ पर अपनी नजरें गराए खड़ी थी । मानो उस अँधेरी रात में वो आकाश के परदे के पीछे छिपे चाँद को ढूंढ़ रही हो| उसके अन्दर कई सवाल उमड़ रहे थे मगर उसे उनके जवाब नहीं चाहिए थे। उनके जवाब मिलने की उसे उम्मीद भी नहीं थी। वो बस कहीं खो जाना चाहती थी, इस दुनियाँ से दूर, क्षितिज के उस पर पार कही| अँधेरे ने उसका चेहरा छिपा रखा था| पर उसकी वो उदास तल्लीनता सबकुछ बता दे रही थी । ...
अचानक उसके पलकों के कोर पर आंसू चमक उठे| आकाश में चाँद निकल आया था| मैं स्पष्ट सुन पा रहा था वो कुछ कह रहा था -
मेरे साथ चल
तुझे ले चलूँ
अपने डगर.... ।
उसके भी कंठ हिले| हालांकि होंठ यथावतस्थिर ही थे और मैं चेहरे पर कोई भाव भी लक्षित नहीं कर पा रहा था लेकिन मेरे कर्णपटलों को भेदती हुई एक तीक्ष्ण सी आवाज मैं सुन पा रहा था-
तेरे साथ हूँ
मुझे ले चलो
चाहे जहाँ
चाहे जिधर ....।।
* * *
कई दर्द हैं....
बेदर्द हैं
अपने सभी
रिश्ते यहाँ ।
मुझे ले चलो
जहाँ ग़म न हो
अपने- पराये
न हों जहाँ ।।
जहाँ रह सकूँ
बिना खौफ़ के
सब रास्ते
हों खुले जहाँ ।
जहाँ बन सकूँ
इतरा सकूँ
ज्यूँ बाग़ - वन
में तितलियाँ ।।
हर आदमी
इन्सान हो,
कुंठित नहीं
व्यवहार हो ।
जीवन सरल
अविराम हो ,
ना घात ना
प्रतिघात हो ।।
* * *
पग - पग पे हैं
यहाँ बंदिशें,
हर ओर है
चुभती नज़र ।
हर रास्ते
कांटे उगे,
छलनी हृदय
जाऊं किधर ।।
.......... तेरे साथ अब
मुझे ले चलो
चाहे जहाँ
चाहे जिधर।
अब तक चाँद उतर कर जमीन पर आ चूका चुका था । उसने एक बार फिर आवाज दिया ...
अब तक चाँद उतर कर जमीन पर आ चूका चुका था । उसने एक बार फिर आवाज दिया ...
......मेरे साथ चल
तुझे ले चलूँ अपने जहाँ
अपने डगर.... ।
तभी मैं क्या देखता हूँ की जमीन में अपने आप एक दरार बनता है और वो दोनों धीरे- धीरे उसमे उतर जाते हैं । आकाश में एक बार फिर निष्तब्ध अँधेरा छा जाता है ।
अचानक मैं तन्द्रा से बहार बाहर आया । देखा धूप काफ़ी चढ़ा चुकी थी । सामने मेज पर अख़बार पड़ा था और उसमे से वही लड़की बाहर झांक रही थी । ऊपर शीर्षक लिखा था "और वो चली गयी..."