Saturday, 10 May 2014

उपासना

तुझे मेरे लिये नदी बनाना होगा प्रिये  !
उनका बहाव भी
और कल-कल स्वर भी ;
फूल भी
पत्ते भी
डालियाँ भी
और पूरा का पूरा पेड़ भी ;
घाँस भी
उनपर पड़ी ओस की  बूँदें भी
और उनमे प्रतिबिम्बित स्वर्ण रश्मियाँ भी;
रात भी
चाँद भी
और चांदनी भी ;
धूप  भी 
सूरज भी
उषा में  उसका आगमन भी
और संध्या में  उसका प्रस्थान भी ;
हवा भी
बादल  भी
और बारिश भी ;
पर्वत भी
उसकी ऊंचाई भी
और उसपर फैली बर्फ की चादर भी;
झील भी 
उसमे प्रतिबिम्बित दृश्य भी
और उस झिलमिल लय को तोड़ कर मुस्कराता कमल भी ;
और भी न जाने कितना कुछ
क्योंकि मैं इन सब रूपों में  आज तक तुम्हे ढूंढता आया हूँ।
क्योंकि इन सब रूपों में
मैं तुम्हारी उपासना  करना चाहता हूँ।

 

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