Monday, 24 February 2014

बहता मन


सोंचता हूँ बहने दूँ मन को
इन मदमस्त हवाओं के साथ
के शायद खुद ढूँढ़ सके
कि यह क्या चाहता है।
के शायद कहीं इसके सवालों का
जवाब मिल जाये
के शायद कहीं इसके ख्वाबों को
पनाह मिल जाये
या फिर यह भूल कर
उन ख्वाबों  को
उन सवालों को
रम जाये नए नजारों में।
या घूम आए पूरी दुनिया
देख आये पूरी धरती का सौंदर्य
किसी निर्लिप्त मुसाफिर कि तरह। 
            .... और नहीं तो
बस लौट आये ऐसे ही ,
मैं समझ लूँगा
कि इसका कुछ नहीं हो सकता।

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