Thursday, 13 February 2014

प्रेम का डेल्टा प्रदेश















तुमने ही तो मुझसे कहा था अनु ! माना कि मैं तुम्हारे track में न  पायी पर तुमने ही तो अपना पता लगने न दिया। माना की मैं इधर कुछ महीनों से थोड़ी ज्यादा बिजी हो गयी थी पर तुमने तुमने ही तो कहा था सेवा भाव से पूजा समझ कर अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने के लिये ; और इधर तुमने ही ख़ुद तक पहुँचने के सारे रास्ते  बन्द कर लिये। पुराने दोस्तों से तुम्हारा कोई संपर्क नहीं है; घर वालों से तो तुम्हें पहले भी कोई मतलब नहीं था social sites पे भी तुम कभी नहीं रहे; पुराने office में भी कुछ खोज-खबर नहीं। तुम हो किस शहर में यह  भी तो पता नहीं चल पा रहा।  मैं काफी दिनों से महसूस कर रही थी कि तुम मुझसे कुछ खिंचे-खिंचे से रहते थे। पर अनु ! तुम ही तो थे जिसने मुझे हौसला  दिया था।

             कितने खुश थे तुम जब मेर result  आया था। और उस दिन भी जब मैं इंटरव्यू देने गयी  थी।  तुमने ही तो मुझे interview के लिये तैयार किया था। और जब offer  letter  आया था; मेरा दिल तो बैठा जा रहा था।  अपना शहर, अपना मुल्क छोड़ कर मैं कैसे रह पाऊँगी।  पर तुम तो तब भी काफी खुश थे।  कहा था " UNO  में इतनी अच्छी नौकरी, मन लायक काम, और रहना भी तो आस-पास ही है; यहीं indian subcontinent  में।  हम आपस में contact में रहेंगे। बीच-बीच में मिलते भी  तो रहेंगें। " पर मेरा मन तो तब भी  नहीं मान रहा था। पता नहीं कुछ डर सा लग रहा था कि काफी कुछ छूट जाएगा।किसी भी तरह से मैं तुमसे अलग होने के लिए खुद को मना नहीं पा रही थी। नया जगह! नए लोग! और फिर काम भी  तो कितना involving  था; मैं कितना आशंकित थी। मेरे मन में तो आया था कि क्यों इन पचड़ों में पड़ना; सब छोड़ कर यहीं सेटल हो  जाते हैं तुम्हारे साथ। उस दिन मैंने तुमसे लगभग यह कह भी तो दिया था। भले इस अंदाज में नहीं की तुम्हे कुछ जवाब देना ही पड़े। मगर तुम मुझे कितनी अच्छी तरह समझते थे अणु ! तुमने मेरे उस निवेदन को भी समझ लिया था और उसे खींच कर अचानक सतह पर लाने वाले डर को को भी।  तभी तो तुमने लौटते समय मेरे पर्स में  वो पर्ची  डाल  दी  थी ; जिसने मेरे future को यह shape  दिया।  कितने अधिकार से तुमने कहा था -



"
ओ री नदी !
तूँ मुझमें रीतने से पहले 
जग को हरियाली देती आना ।
     -         -          -

मुझे तेरे जल की प्यास नहीं 
तूँ मेरे लिए 
खाली हाथ ही आ 
तूँ हर तरह मेरी है 
बस हृदय में प्रेम लाना ।

     प्रेम :
- अहं का लोप 
- सीमाओं का घुल जाना 
- किनारों से परे विस्तृत होते चले जाना 
  और निर्माण एक डेल्टा प्रदेश का
  जहाँ जीवन झूमता हो 
  अपने अक्षुण्ण उमंग में । 

           -         -          -

तूँ  कृपणता छोड़ 
दोनों हाथों से उड़ेलती चल 
अपना शीतल जल,  अपना स्व
ताकि एक सुजलां- सुफलां धरा का निर्माण हो 
अपने मिलन क्षेत्र के परितः । 

                                                 -तुम्हारा  अनु 

(और हाँ मुझे खुद को सागर और  तुझे नदी बोलने का  कोई अधिकार नहीं है।  यह तो तेरा प्रेम और समर्पण ही  है की मैं  खुद को सागर मान  बैठा  )"
                              
                                  तो अनु! आज तुम उस प्रेम और समर्पण को कैसे भूल गए। कैसे भूल गए की मैं सदा -सदा से तुम्हारी हूँ। मैं जितना अपने प्यार को जानती हूँ उतना ही  तुम्हारे प्यार को भी। तुम मुझसे दूर नहीं रह सकते। देखो अनु ! तुम्हारी नदी तुमसे मिलने आई है ; बिल्कुल  खाली हो कर पर हाँ उसने सुजलां-सुफलां धरा  का  निर्माण किया  है। क्या तुम बाहें  खोल उसका स्वागत नहीं  करोगे।

------------------------------------------------------------------------------------


3 comments:

  1. A lovely description of love..........

    ReplyDelete
  2. Kya arya saab aajkal bare hi virah wali kahani kavita likh rhe h

    ReplyDelete
  3. धन्यवाद दोस्तों ! To book your presence.

    ReplyDelete

आपके विचार हमारा मार्गदर्शन व उत्साहवर्धन करते हैं कृपया हमें इमसे वंचित न करें ।