अब केवल मैं बोलूँगी ।
बहुत हो गया कहना-सुनना
- सुन मेरी अब सिंह-गर्जना ।
"खड़े-खड़े बस बातें करना"
"सिर से पाँव स्वार्थ में डूबे
धरे हाँथ पर हाँथ विचरना "
-खिन्न मंद मैं हँस देती थी ।
मगर बाँध अब टूट चूका है-
अट्टहास मम सुन कराल यह
तेरे पाँव उखड़ जाएँगे ;
खिसकेगी कदमों के नीचे
धरती, अम्बर भी उलटेगा ;
प्रलय-प्लवन हहरेगी मग में
भागो कहाँ किधर भागोगे।
शांति ?
शांति नहीं अब,
दया नहीं अब,
क्षमा नहीं, वात्सल्य नहीं अब;
अपना हक़, अपनी निर्मलता
माँगे मुझको मिली नहीं जब ।
मेरे जीवन की धारा को
जीवित नहीं जब तुमने छोड़ा ।
अब इस विप्लव के प्रवाह को
शिव भी स्वयं न रोक सकेगा ।
मद! लोलुपता!! अकर्मण्यता!!!
का हिसाब तुम अब पाओगे ।
भविष्य-
नहीं जानती मैं बस
इतना मुझको अभी ज्ञात है
मुझसे इतर भविष्य नहीं है
ना कल था, न वर्तमान है ।
जीवन-क्षय की असह वेदना
पीड़ित मुझको भी करती है
जीवन-संतुलन के हित यह
द्रवित-अस्मिता की उफान है ।
गुंथा हुआ है एक सूत्र में
जीवन का हर एक रूप यह
गर तोड़ोगे इस तंतु को
कंकर हो जीवन बिखरेगा
नाश - नाश
बस दारुण दुःख ही
इसका पारितोषक पाओगे ।
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Disclaimer: My intention is not to offend those affected by such a disaster. I prey for their well being and recovery. This poem is concerning about reason behind such disaster.
yes this the way of nature to give punishment for our bad deeds .well written .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (01.07.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी. कृपया पधारें .
ReplyDeleteकृपया वर्ड वेरिफिकेसन हटा दें , कमेन्ट करना आसान होगा .
bahut prabhaavkari rachna ..good work!!!
ReplyDeleteप्रकृति पोसती है, पर सहनशीलता की सीमा पार होने पर रौद्र-रूप धर विनाश पर उतारू हो जाती है !
ReplyDeleteब्लाग पर आने के लिए आप सभी को धन्यवाद...
ReplyDeleteअसली काम पुनर्निर्माण तो अभी बाकी है ।