Sunday, 23 June 2013

प्रलय-प्लवन




चुप!
अब केवल मैं बोलूँगी ।

बहुत हो गया कहना-सुनना 
- सुन मेरी अब सिंह-गर्जना ।

"खड़े-खड़े बस बातें करना"
 "सिर से पाँव स्वार्थ में डूबे 
धरे हाँथ पर हाँथ विचरना "

-खिन्न मंद मैं हँस देती थी ।
मगर बाँध अब टूट चूका है-
अट्टहास मम सुन कराल यह 
तेरे पाँव उखड़ जाएँगे ;
खिसकेगी कदमों के नीचे 
धरती, अम्बर भी उलटेगा ; 
प्रलय-प्लवन हहरेगी मग में 
भागो कहाँ किधर भागोगे।

शांति ?
शांति नहीं अब, 
दया नहीं अब,
क्षमा नहीं, वात्सल्य नहीं अब;
अपना हक़, अपनी निर्मलता
माँगे मुझको मिली नहीं जब ।
मेरे जीवन की धारा को 
जीवित नहीं जब तुमने छोड़ा ।
अब इस विप्लव के प्रवाह को 
शिव भी स्वयं न रोक सकेगा ।
मद! लोलुपता!! अकर्मण्यता!!!
का हिसाब तुम अब पाओगे । 

भविष्य-
नहीं जानती मैं बस 
इतना मुझको अभी ज्ञात है 
मुझसे इतर भविष्य नहीं है 
ना कल था, न वर्तमान है ।
जीवन-क्षय की असह वेदना 
पीड़ित मुझको भी करती है 
जीवन-संतुलन के हित यह
द्रवित-अस्मिता की उफान है ।

गुंथा हुआ है एक सूत्र में 
जीवन का हर एक रूप यह 
गर तोड़ोगे इस तंतु को 
कंकर हो जीवन बिखरेगा 
नाश - नाश 
बस दारुण दुःख ही 
इसका पारितोषक पाओगे ।
  


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Disclaimer: My intention is not to offend those affected by such a disaster. I prey for their well being and recovery. This poem is concerning about reason behind such disaster.
  






5 comments:

  1. yes this the way of nature to give punishment for our bad deeds .well written .

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  2. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (01.07.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी. कृपया पधारें .
    कृपया वर्ड वेरिफिकेसन हटा दें , कमेन्ट करना आसान होगा .

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  3. bahut prabhaavkari rachna ..good work!!!

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  4. प्रकृति पोसती है, पर सहनशीलता की सीमा पार होने पर रौद्र-रूप धर विनाश पर उतारू हो जाती है !

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  5. ब्लाग पर आने के लिए आप सभी को धन्यवाद...
    असली काम पुनर्निर्माण तो अभी बाकी है ।

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आपके विचार हमारा मार्गदर्शन व उत्साहवर्धन करते हैं कृपया हमें इमसे वंचित न करें ।

Images : courtsy google
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