एक मूरत थी मैं
माटी की
सुन्दर सी, सलोनी सी।
मुझे हर पल बनाया गया था,
सजाया गया था तेरे लिए।
थी अमानत मैं कुम्हार की
या कहो जिम्मेदारी थी
.. फिर उस दिन जाने क्या हुआ
की अब से मैं तुम्हारी थी।
(शायद मुझपे मालिकाना हक बदल गया था। )
मैं कोई खुश तो नहीं थी
आशंकित थी,
पर एक संतोष था-
की शायद तुम्ही मुझमे
प्राण फूंक दो....
* * *
तुम लेकर आये मुझे
अपने मंदिर में
मुझे विराजित किया
एक सुसज्जित आसानी पर।
- मुझमे प्राण-प्रतिष्ठा भी किया।
फिर सबने एक एक कर
आरोपित किये मुझमे
अपने अपने भगवान-
अपनी अपनी इच्छानुसार
और आगे से मुझे बनना पड़ा
सबके लिए भगवान।
सबको मिलो उसी रूप में
जैसा वे चाहते हैं ।
सबकी जिम्मेदारी
अब आगे से मेरी थी।
पर अधिकार मेरा कहाँ था
अपने उस आसानी पर भी,
उससे उतरने का तो मतलब था
मेरा पदच्युत होना ।
मुझसे तो वांछित था
की मैं प्रसाद- धूप- बत्ती
आदि जो भी मिले
ग्रहण करती रहूँ
और सब का भला करती रहूँ।
हाँ! अब मेरे पास शक्ति थी
मैं कुछ भी कर सकती थी
जब तक की उससे
हर किसी का भला हो
और मुझे न उतरना पड़े
अपने उस सुसज्जित आसनी से।
पर अब भी मेरे पास
अपनी कोई इच्छा कहाँ थी
- मैं अब भी वही मूरत थी माटी की
....प्राण-प्रतिष्ठा करके
मुझे भगवान बनाना तो
तुम्हे और तुम्हारे समाज को स्वीकार था
पर मेरे अपने प्राण के अस्तित्व को
स्वीकार करने की हिम्मत
न तुझमे थी
न तुम्हारे परिवार के किसी सदस्य में ।
माटी का अंतर्मन कौन पढ़े
ReplyDeleteबहुत कुछ कहती सुन्दर रचना
सही कहा आपने - हम तो बस अनुमान लगा सकते हैं ।
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