जिंदगी के नशे में \
कुछ गाता हूँ \
गुनगुनाता हूँ \
कभी चीखता चिल्लाता हूँ \
रोता रुलाता हूँ \
तो कभी हँसता हंसाता हूँ \
या कभी चादर ओढ़ कर \
चुप-चाप सो जाता हूँ…
एक झीनी सी दीवार
जिसके आर पार
कितने भरे हुए हम दोनों ;
बस मौन-मुग्ध इंतजार
एक हल्के से हवा के झोंके का
जो उस दीवार को ढ़हा दे
और छलका कर दोनों गागर का जल
हमारे अहम्- वहम् सबकुछ
उसमें बहा दे ।
कभी कभी ये झीनी सी दीवार भी अभेद्य हो जाती है...
ReplyDeleteबहुत कोमल भाव...
अनु
शुक्रिया अनु जी !
ReplyDeleteEgo के foundation पे misunderstandings के ईंट जुडते चले जाते हैं और दूरियाँ बढ़ती जाती है...
बिलकुल सही....मेरे उस कविता के ,,,मेरे शब्दों को विस्तार दिया हैआपने.... आभार
ReplyDeleteये झीनी दीवार कितनी दुखदायी होती है कभी कभी
ReplyDeleteबेहतरीन भाव
नाजुक एहसास..वाह!
ReplyDeleteआपने सराहा... मेरा हृदय पुलकित हो गया...
ReplyDeleteबहुत प्यारे जज्बात
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