ऐसे गुजरे वो दिन
जिस दिन मुझे जाना हो -
कि तेरी एक मुस्काती सी छवि
सारे दिन फंसी रहे
मन के किसी कोने में ।
कुछ बातें कर लूँ अपनों से;
दुआ कर सकूँ उनके खैरियत की।
न कोई जल्दी हो
यहाँ से जाने की ,
और न कोई टीस
यहाँ कुछ छूट जाने की ।
हाँ, उस रोज जरूर देख सकूँ
सूरज को उगते हुए ;
जरूर सुने हो मैंने
पंछियों के किसी झुंड की चहचहाहट ;
जरूर बतियाया होऊं मैं
किसी भोले नटखट बचपन से;
और पानी दे सकूँ मैं आखिरी बार
गमले में खुद से लगाये किसी पौधे में ;
और फिर सो जाऊं
एक हल्की सी मुस्कान के साथ।
क्या हर दिन ऐसे ही नहीं गुजर सकता ?
क्योंकि कौन जाने कब चलना पड़ जाये ।
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