हाँ, आज तुम बाहें पसारे
आनंद ले लो
बारिश की बूंदों में भींगने का;
कल जब तुम्हारे सर पे
छत नहीं होगी, तो पूछूँगा -
कि भीगते बिस्तर पे
कैसे मजे में गुजरी रात !
आज देख लो ये रंगीन नजारे
ये बागीचे, ये आलीशान शहर;
कल जब लौट के आने को
कोई ठिकाना नहीं होगा, तो पूछूँगा-
चलो कहाँ चलते हो घूमने !
आज तुम झंडा बुलंद कर लो
सम्पन्नता प्रचालित न्याय नीति का;
कल जब पेट में
नहीं होगा अन्न का दाना, तो पूछूँगा-
कहो कब तक उल्लुओं-कौवों को
उडाने दोगे अपना निवाला !
आनंद ले लो
बारिश की बूंदों में भींगने का;
कल जब तुम्हारे सर पे
छत नहीं होगी, तो पूछूँगा -
कि भीगते बिस्तर पे
कैसे मजे में गुजरी रात !
आज देख लो ये रंगीन नजारे
ये बागीचे, ये आलीशान शहर;
कल जब लौट के आने को
कोई ठिकाना नहीं होगा, तो पूछूँगा-
चलो कहाँ चलते हो घूमने !
आज तुम झंडा बुलंद कर लो
सम्पन्नता प्रचालित न्याय नीति का;
कल जब पेट में
नहीं होगा अन्न का दाना, तो पूछूँगा-
कहो कब तक उल्लुओं-कौवों को
उडाने दोगे अपना निवाला !
समय के भुज-बल से सचेत करती सुन्दर पंक्तियाँ.
ReplyDeleteसार्थक रचना!
ReplyDeleteआप दोनों का सादर शुक्रिया ! आपके सुझावों का इंतजार रहेगा ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना .
ReplyDeleteवाह वाह
ReplyDeleteबहुत खूब ...
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