प्रारंभिक शिक्षा का उद्देश्य
आज मैं एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जो इस देश के, इस दौर के प्रारंभिक शिक्षा से गुजर चुका है, अपने कुछ विचार प्रस्तुत करना चाहता हूँ। मैं किसी भी विषय का विशेषज्ञ नहीं हूँ, इसीलिए मेरे सुझावों में मैंने बस आगे बढ़ने के लिए कुछ दिशाएँ इंगित की हैं। अगर वो दिशा सही लगे तो विशेषज्ञ उसके रास्ते और विस्तृत रूप रेखा तय कर सकते हैं।
शिक्षा व्यवस्था का उद्देश्य होना चाहिए-सीखना।
सीखने के कई तरीके हो सकते हैं - पढ़ना उनमें से एक है। पढ़ना से यहाँ तात्पर्य पढ़ना, लिखना, शिक्षक से पाठ को सुनना और याद करना सब हैं जो की पुस्तक के इर्द - गिर्द चलते हैं। सीखने के इसके अलावा और भी कई तरीके हो सकते हैं। सम्मिलित रूप में इनको हम प्रयोग के द्वार सीखना कह सकते हैं। विज्ञान के विषयों में हम थोड़ा ध्यान तो सीखने की इस विधि पर देते हैं परन्तु भाषा और मानविकी के क्षेत्र में हमने कभी भी सीखने के इन तरीकों के ओर ध्यान नहीं दिया है।
हम जिस समाज में रहते हैं उसमें हमें सीखाने की काफी संभावना है। किन्तु आज की विद्यालयी व्यवस्था ने तो हमें अपने उस समाज से काटने का ही काम किया है। आज जैसा प्राथमिक शिक्षा का स्वरूप है उसमें जिन बच्चों की शिक्षा पर जितना अधिक ध्यान दिया जाता है वो अपने परिवेश से उतना ही अधिक कट जाते हैं, दूर हो जाते हैं।
हमें पाठ्यक्रम में ऐसे बदलाव लाने पड़ेंगे जिससे उनका समाज से जुड़ाव बढ़े, उन्हें अपने समाज / परिवेश को observe करना समाज से जानकारी जुटाना सीखना होगा। इससे उनकी पर्सनालिटी में नए आयाम जुड़ेंगे। अपने परिवेश से उनका जुड़ाव बढ़ेगा, वो आस पास के समस्याओं से अवगत होंगे ओर सीखने का सही तरीका पता चलेगा। क्योंकि पुस्तको को पढ़ कर सीखना तो secondry तरीका है, जिससे कोई वही सीख सकता है जो पहले से उपलब्ध है और साथ साथ जो आपको स्कूल नामक संस्था सीखाना चाहती है। पुस्तकों से हम बस किसी विषय का भूतकाल जान सकते हैं। वर्तमान और भविष्य जाने के लिए तो हमें समाज के सही observation पर ही निर्भर रहना होगा।
प्रारंभिक शिक्षा में हमें क्या शामिल करना चाहिए
ज्ञान अनन्त है। ज्ञान के आयाम/क्षेत्र अनन्त हैं। आरंभिक शिक्षा में ज्ञान की हर शाखा का आधारभूत - परिचय भी देना चाहें तो यह असंभव हैं। अगर हम इन असंख्य शाखाओं में से कुछ को चुन कर छात्रों को उनकी शिक्षा देते हैं तो बाकी शाखाओं के साथ अन्याय होता है। इससे बचने के लिए हम प्रारंभिक शिक्षा में ज्यादा से विषयों को सम्मिलत करने लगते है। फलस्वरूप छात्र के ऊपर का बोझ बढ़ता जाता है।
इसके विकल्प के रूप में - विद्यालयों में हम अलग अलग विषयों पर जोर न डालकर, सीखने- जानने के तरीकों को सिखाने पर जोर डालें। सीखने और जानने के जितने भी तरीके हो सकते हैं, छात्रों को सारे सिखाएं तथा इनके प्रयोग के अभ्यास करवाएं। ताकी जीवन के जिस भी मोड़ पर उन्हें जब भी, जो भी सीखने की जरूरत है - वो उसी समय अपने जानने और सीखने के उस कौशल का प्रयोग करे, मेहनत करे, और सीख ले। वैसे भी विद्यालयों में हम उन्हें सारा कुछ सिखा नहीं सकते और आने वाले समय में क्या उनके काम आएगा हम पहले से जान नहीं सकते।
सीखने के तरीकों के अभ्यास के लिए हम वर्तमान में विद्यालयों में सिखाने जाने वाले विषयों को ले सकते हैं परंतु विषयों को सीखने से ज्यादा जोर सीखने/जानने/observe करने के तरीको को सीखने पर होना चाहिए। इस तरह हम उन्हें एक ऐसा टूल पकड़ा देंगे जो उन्हें जीवन भर काम आएगा।
परिक्षा का तनाव
आज परिक्षा के तनाव को कम करने की बहुत चर्चा होती है। परन्तु मेरे विचार में परिक्षा को खत्म करना इसका हल नहीं है। पाठ्यक्रम में सीखने के प्रायोगिक रूप को शामिल कर वर्षांत परिक्षा पर निर्भरता कम की जा सकती है। विद्यार्थियों को कुछ प्रायोगिक Assignment दिये जा सकते हैं जिनकी उत्कृष्टता के अनुसार उनको मुल्यांकन किया जाए |
यहाँ मैं एक बात पर जोर देना चाहूंगा कि शिक्षण में यादास्त का अपना महत्व है। हालांकि आज शिक्षा के विमर्श में इसी बात पर ज्यादा जोर है कि रटन्त विद्या का विरोध किया जाए, और छात्रों में सोचने की कौशल का विकास किया जाए। लेकिन कुछ जरूरी चीजों को जबतक हम याद करके पूरी तरह आत्मसात नहीं कर लेते तब तक हमारे सोंचने का दायरा सीमित ही रहता है। रटंत के इस विरोध में हम मानवीय मस्तिष्क के एक महान क्षमता की उपेक्षा कर रहे हैं। जबकी इसका विकास भी हमारी शिक्षा का एक उद्देश्य होना चाहिए (कम्पूटर के क्षेत्र में Analogy लें तो सोंचिए कि किसी कम्पूटर में RAM तो काफी उच्च गुणवत्ता वाला हो किन्तु ROM पे ध्यान न दिया जाए तो क्या हमें सही performance मिलेगा? ) अतः हमें शिक्षण व्यवस्था में यादाश्त की छमता को बढ़ाने / प्रयोग करने का कौशल भी देना चाहिए।
ज्ञान का उत्पादन
Knowledge कोई भी creat कर सकता है। हम दैनिक जीवन में और मानव इतिहास में कई ऐसे लोगे को जानते हैं जिन्होंने बिना किसी फार्मल शिक्षा के, शिक्षा /ज्ञान/ विज्ञान के उत्पादन अपरिमित योगदान दिया है। किन्तु वर्तमान प्रणाली में जब तक आपने किसी पूर्वस्थापित संस्था द्वारा अनुसार PHD/Doctorate की डिग्री प्राप्त नहीं की आप ज्ञान का उत्पादन नहीं कर सकते। (साथ ही हमने यह भी अनुभव किया है कि किसी संस्था के देख रेख में इतने सालों तक विद्यार्जन करते करते व्यक्ति के ऊपर एक विशेष रंग /आवरण चढ़ जाता है, और वे दुनिया को अपने उस खोल से निकलकर नये आलोक मे नहीं देख पाते हैं।) इससे बचने के लिए हमें प्रारंभ से शोध करने के तरीके थोड़े थोड़े सिखाने चाहिये। अर्थात हमें Secendry source से जानकारी को Mug-up करवाने के आलावा - प्राथमिक स्रोतों से जानकारी को इकट्ठा करने के तरीकों के बारे में भी बताना चाहिए।
मान लीजिये मेरे मन में कोई जिज्ञासा है । और मैं उसके पाठ्य पुस्तकीय उत्तर से सहमत नहीं हूँ, संतुष्ट नहीं हुँ, उस विषय पर मैं और अध्ययन करना चाहता हूँ, तो जबतक मैंने अतिउच्च शिक्षा हासिल न की हो तबतक हमें इसके तरीकों के बारे में कुछ भी नहीं बताया जाता। अर्थात स्नातक तक पूरे 15 साल की शिक्षा में (जिसमें की जीवनोपयोगी शिक्षा का भाग हो नगन्य ही था -थोड़ा पढ़ना लिखना सीखा, हिसाब लगाना और अलग से कोई प्रोफेशनल/वोकेशनल कोर्स तो वो सीखा ) सारा ध्यान या ज्ञान बढ़ाने पर था कि हमें ज्ञान प्राप्त करने का हुनर मिल जाए, हमें खुद से शोध करने के बारे में कुछ बताया ही नहीं गया।
उदाहरण के तौर पर
यहां मैं एक बार फिर से स्पष्ट करना चाहूँगा कि मैं ना ही कोई शिक्षाविद हूँ और न ही किसी विषय का एक्सपर्ट फिर भी मैं अपनी क्षमता के अनुसार कुछ अलग अलग विषयों के छात्रों में प्रयोगिकी और शोध प्रवित्ति को विकिसित करने के लिए सुझाव प्रस्तुत करना चाहूँगा।
भूगोल- हम विद्यालय स्तर पर पूरी दुनिया की भूगोल पढ़ते हैं। धरती के अलग अलग जगह पर है, कौन सी नदी है, कौन से पहाड़ हैं, कैसे वन हैं, कैसे जलवायु हैं, कौन से फसल हैं इत्यादि। इनका एक academic value है। किंतु अधिकतर व्यक्ति जो आगे चलकर भूगोल विषय नहीं पढ़ना चाहते हैं उनके लिए यह उतना उपयोगी नहीं है। तो क्या भूगोल का हमारे जीवन में कोई प्रैक्टिकल महत्व नहीं है। है, पर हमे उन ग्लोबल इवेंट को अपने क्षेत्रिय परिवेश पर इनका क्या असर पड़ता है इस परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है। पाठ्यक्रम में यह बताने की कम जरूरत है कि भौगोलिक विविधता का कहाँ कहाँ क्या असर पड़ा वरण हमें वह चाभी देने की जरूरत है कि कैसे हम खुद उसके विभिन्न प्रभावों अध्ययन कर सके ।
पाठ्यक्रम में प्रायोगिक पक्ष को जोड़ा जा सकता है। जिसमे विद्यार्थी को यह asignment दिया जा सकता है कि आस पास कैसी मिट्टी में, किस ऋतु में से कौन कौन से फसल होते हैं। मिट्टी का ऐसा प्रकार क्यों है।हाल के वर्षों में मौसम में क्या परिवर्तन हुए हैं, और उनका वनस्पति व परिवेश पर क्या प्रभाव पड़ा है। आस-पास के नदी, तालाब का नक्सा बनाने के, गांवों शहरों, सड़कों के नक्शा बनाने के प्रयोग दिए जा सकते हैं। आस-पास के नदी, पहाड़, तालाब अथवा अन्य भगोलिक सरंचना के अध्ययन और उसके अन्य कारकों-तत्वों पर असर का अध्ययन करने को कहा जा सकता है।
यह सब करने के लिए उन्हें खुद observe करना पड़ेगा, लोगों से, जानकरियों जुटानी पड़ेगी, उनका समाज से जुड़ाव बढ़ेगा, वे क्षेत्रीय विविधता और समस्याओ से परिचित होंगे तथा उनके व्यतित्व में नए आयाम जुड़ेंगे।
इतिहास- इतिहास में हमे बहुत सी बातें बताई जाती हैं, पर इनका academics के अलावा तब तक कोई औचित्य नहीं है जब तक हम अपने वर्तमान परिदृश्य में उनके प्रभाव का पता न कर सकें और वर्तमान के सवालों समस्याओं के हल ढूँढ़ने में उनसे कोई मदद ले सकें। इसके लिए इतिहास के प्रारंभिक पढ़ाई में भी हमे प्रायोगिक पक्ष को जोड़ना होगा।
इतिहास को विद्यार्थी से जोड़ने के दो पक्ष हैं - पहला इतिहास को हमारे आज से जोड़ना दूसरा इतिहास को हमारे क्षेत्र से जोड़ना। इसे वर्तमान से जोड़ने का कार्य तो बड़े स्तरों पर भी होता है किन्तु इतिहास को क्षेत्रिय स्तर से जोड़ने में छात्रों का अहम योगदान हो सकता है।
इतिहास के प्रायोगिक कार्य हो सकते है- स्थानिय स्मारकों प्राचीन या कुछ दसकों पहले के मानवीय निर्माणों के बारे में, स्थानिय महापुरुषों /लोक यादाश्त में उपस्थित कला, संस्कृति, खेल, घटना के बारे में (ये स्थानीय महापुरुष राज्य के स्तर के हो सकते हैं जिला स्तर के या गाँव स्तर के भी हो सकते हैं) जानकारियां एकत्र करना। छात्र अगर इनके बारे में रिकार्ड करते हैं तो हमारी जनमानस में व्याप्त इतिहास को लिखित रूप देने का बहुत ही श्रमसाध्य कार्य सामूहिक रूप से किया जा सकेगा। एक ही घटना को अलग अलग परिप्रेक्ष्य में देखने पर उनके विवरण अलग अलग हो सकते हैं आगे चलकर कोई scholer इसके वास्तविक स्वरूप को समझकर इनका प्रयोग अपने शोध के लिए कर सकते हैं। (वास्तविक स्वरूप में ये स्कूली छात्रों के विवरण कई तरह के अशुद्धियाँ और अतिशयोक्ति से भरे होंगे। इनको ध्यान में रखते हुए उनके अन्दर से सच्चाई ढूंढना किसी एक्सपर्ट के लिए उससे तो आसान ही होगा जितना की जमीनी स्तर पर फिर से पूरा शोध करना, जो की बहुत जल्दी ही विस्मृती के कगार पर है।
समाज शास्त्र- समाज शास्त्र का प्रायोगिक कार्य हो सकता है समाज में विभिन्न समुदायों को, उनके आपसी interaction को रिकार्ड करना, विभिन्न सामाजिक संस्थाओं विवाह, परिवार आदि के किसी पहलू को रिकार्ड करना इत्यादि।
कार्य तो कक्षा के हिसाब से निर्धारित किए जा सकते हैं। इनके रिकार्ड का स्तर अगर अच्छा हो तो उन्हें संग्रहित किया जा सकता है। यदि उतना अच्छा न भी हो तो भी छात्रों में यह एक खोजी दृष्टी तो जरूर पैदा करेगा। हाँ, यह ध्यान में रखना होगा कि ये प्रायोगिक कार्य वास्तव में छात्रों द्वारा खुद किये जाएं, केवल उत्तर कॉपी न किये जायें। और यह भी की मूल्यांकन इस तरह से हो कि यह पता लगाया जा सके कि कि छात्र ने observe करना और रिकॉर्ड करना कितना अच्छी तरह से सीखा है ना कि उसने निष्कर्ष कैसा निकाला है। और वह निष्कर्ष प्रचलित मान्यताओं पे खरा उतरता है कि नहीं।