Sunday, 13 November 2011

jagane se kuchh der pahale

जगाने   से  कुछ  देर  पहले 


जाने कबसे,
देखा नही - खुले  गगन को,
नजरें न फेरी- जमीं की ओर |

भूल गया-
की सूरज कब आता है,
कब जाता है,
की पंक्षी गाते भी हैं,
की फूल खिलते भी हैं,
की घाँस का स्पर्श कैसा होता है,
की कैसे बचपन
सबकुछ भूलकर रोता है,
फिर अगले ही पल खिलखिलाता हुआ भाग जाता है |

सुना नहीं -
पेड़ों के पत्तों की पुकार,
जब बुलाया था उसने
रुकने को दो पल अपने साये में;
बारिश के बूंदों की रिमझिम,
जब भिंगोया था उसने
खिड़की के शीशों को, छतों को, दीवारों को |

पता नहीं
की नदी
(जिसपर बने पुलिए से हर रोज गुजरता हूँ)
किस ओर जाती है;
की हमारे फ्लैट के बांकी  आधे हिस्से में
(जिसका दरवाजा मेरे दरवाजे के ठीक सामने खुलता है)
कौन रहता है |
*     *    *

आज जगाने से कुछ देर पहले
मै खड़ा था नदी के ऊपर बने पुलिए पर ,
पंछियों के चहक से मेरा एकांत गूंज रहा था,
मै पूरे  आकाश भर में घूम रहा था,
या फैलता जा रहा था;
तभी मुझे छुआ सूरज की लाल किरणों ने
और नीचे  एक स्मित मुस्कान के साथ
झिलमिला उठी नदी |

*   *   *

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|| -आज के मशीनी जीवन के खिलाफ एक मोर्चा .......स्वपनों  के माध्यम से || 
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Images : courtsy google
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