Saturday 4 July 2015

नजरिया -: सिलसिला

हर कलाकार अपनी कला के माध्यम से जिंदगी को समझने-समझाने की कोशिश करता है । कहीं एक पहलू तो कहीं दूसरे पहलू को विस्तार देता है ताकि उसकि कई बारीकियों तक हमारी निगाह पहुँच सके । कला के ग्राहक वर्ग में हर एक आम इंसान होता है जो उसमें अपनी और अपने आस-पास की जिंदगियों और उसके विभिन्न दृश्यों को कलाकार के दृश्टिकोण से मगर अपनी नजरों से देखता है, समझता है, महसूस करता है । यहाँ मैं अपनी नजरो से प्रस्तुत कर रहा हूँ-

              
फिल्म - सिलसिला






"नयनों  में  निंदिया 
निंदिया  में सपने 
सपनों  में साजन -
जब से  बसा ,
बहारें आई जीवन  में 
नयी  हलचल  है  तन-मन में ....."
       
          - शेखर (शशि) और शोभा (जया) किसी बाग़ में चंद खूबसूरत लम्हे सहेज रहे हैं। शेखर कश्मीर में पोस्टेड एयर-फोर्स का फाइटर पायलट है।  वह या तो आकाश में होता है या धरती पर। आकाश - ड्यूटी है; तो  धरती- शोभा अमित और rum.

अगली बार जब पार्क  में दोनों होते हैं तो अमित के आवाज की एंट्री होती है; शेखर शोभा को अपने  भाई अमित  की रिकॉर्डिंग सुनाते  हैं  -

"जिन राहों में तेरे साथ गुजरने की तमन्ना थी
आज उन राहों से मैं  तनहा गुजर आया 
चारों तरफ एक ऐसा सन्नाटा है 
कि आदमी खुद से भी बात न कर सके 
मैं अकेला 
तनहा 
पूछता हूँ 
वो कौन है जो 
इन हसीं मनाज़िर से पड़े 
वक़्त की  गिरफ्त से बाहर 
मेरा इंतजार  कर रहा है 
वो कौन है "

       -खुरदुरी  सी आवाज में दर्द , दर्द में एक मीठापन -एक  तलाश। 

उधर अमित को एक दोस्त की शादी में उसकी चुलबुली सी चांदनी (रेखा) मिल जाती है।  उसे अमित का पहला तोहफा मिलता है -गुलाब के एक गुच्छे के साथ उसी खुरदुरी आवाज में एक तजवीज़- कि हर महीने ऐसा एक गुलदस्ता आपके लिए होगा। -प्यार का इतना प्यारा वादा कानों में जैसे संगीत घोल देता है।

भाई अमित को खुशनुमा मौसम का हवाला दे कर कश्मीर बुलाता है। अमित पंहुचा तो जनाब खुद गायब - ड्यटी है भई।
शोभा एयर पोर्ट पर अमित को देखते ही पहचान लेती है- "लम्बा ,चौड़ा, ऊँचा - आँखों में जिंदगी की चमक - आवाज जो सुनते ही दिल में उतर जाए -" 
 गाड़ी चलती है - बातें चलती है- अपनी और भाई के पुराने दिनों की यादें - कैसे दोनों हर काम साथ करते थे यहाँ तक की उन्हें पहला प्यार भी एक साथ और एक के ही साथ हुआ।
बोतलें खुलती है - बातें चलती हैं - बीते दिनों की यादें।
कभी तीन-अमित, शेखर और शोभा; तो कभी दोनों भाई, कुछ समय यूँ ही गुजर जाता है।

                        *                      ***                         *

            फूल उस खुरदुरी आवाज के साथ चांदनी तक फिर से पहुँचते हैं -

"कश्मीर की वादी में 
अनजाने में कई बार 

आपका नाम पुकारा है- 
चांदनी … चांदनी…, 
कल दिन भर मैं आपके नाम के साथ-
अपना नाम लिखता रहा। 
दो लफ्ज हैं तनहा - अकेले 
लेकिन एक साथ लिख दियें जाएँ 
तो एक दुनिया  
एक कायनात 
एक तलाश 
एक लम्हा 
एक खुशी 
बन  सकते हैं "

कानों में  फिर से जैसे कोई  संगीत घुल जाता है -

"वहमों -गुमान से दूर दूर 
यकीं के हद के आस पास  
दिल को भरम  ये हो गया -
उनको हमसे प्यार है……" 

अमित के आवाज में एक डायलॉग और सुनते हैं -

"साँस लेना - साँस लेते रहना - 
जिंदगी नहीं है, जिन्दा रहने की आदत है.… 
एक शून्य हो तुम लोग -
शून्य से शुरू होकर - शून्य पर ख़त्म हो जाते हो। 
जो तुम सोंचना चाहते हो सोंच नहीं सकते - 
जो तुम कहना चाहते हो कह नहीं सकते -
जैसे तुम जीना चाहते हो जी नहीं सकते। 
जब तुम चिल्लाते हो -तो तुम्हारी आवाज पलट कर नहीं आती 
प्यार, मोहब्बत, दोस्ती , देश -प्रेम -- सब के सब खोखले शब्द हैं;
इनका हकीकत से कोई वास्ता नहीं। 
अब भी वक़्त है 
वो तुम्हे बुला रहा है -उसे ध्यान  सुनो -
डरो नहीं ,
अपने आप से  श मिन्दा मत हो ,
आवाज सुनो-
आवाज दो - कि  तुम आजाद हो 
इंकार की नींव डालो 
कहो - कि  बनावट की जिंदगी ,
झूठ की जिंदगी ,
फरेब की जिंदगी -
तुम नहीं जी सकते 
अपनी अपनी खिड़किया खोलो 
बहार निकलो -
और चिल्लाओ- कि  हम आजाद हैं ,
पुकारो कि- हम आजाद हैं ,
आवाज दो कि हम आजाद हैं ,
… हम....   आ...जा......द…   हैं ........"  

   बात है की अमित जी नाटककार हैं।  अभी वो मंच पर अपने नाटक के पक्ष में समा बांध रहे थे और दर्शक दीर्घा की अगली पंक्ति में ही उनकी चांदनी जी बैठी हुई थे।  मंचन पूर्ण होते ही हॉल तालियों से गूंज उठता है। लौटते वक़्त अमित और चांदनी की चाहत अगले पड़ाव तक कुछ इस तरह पहुचती है  -
-'वो बात जो मैं आपसे कहना चाहता हूँ कह दूँ ?' 
-'वो बात जो मैं सुनना चाहती हूँ कह दीजिये।'
पर इस लफ्फाजी में इजहारो -इकरार  अधूरा ही रह जाता है।

आगे खूबसूरत लम्हों से सजे कुछ यादगार मुलाकातों का दौर चलता है-

"… ओस बरसें - 
रात भींगे- 
होंठ थर्राए 
धड़कनें कुछ 
कहना चाहें -
कह नहीं पाए 
हवा का गीत मद्धम है 
समय की चाल भी कम है..... "

                                 *                                           *                                            *

          जिंदगी कितनी खूबसूरत है- "कश्मीर की वादियों की तरह"-"फूलों की तरह'"। परन्तु युद्ध सबकुछ तहस-नहस कर डालता है। पूरी की पूरी वादी सुलगने लगती है। जड़, तना, पत्ते तो क्या फूल तक झुलस जाते हैं। जानते हुए भी की फिल्म है पूरे शरीर में झुरझुरी सी फैल जाती है। टीवी सेट में समाचार आता है कि  फिरोजपुर सेक्टर में दुश्मनो के चार जंगी जहाज गिरा कर स्क्वा. लि. शेखर मल्होत्रा शहीद हो गए। एक दुनिया डूब गई। चीख,रुदन फिल्म के परदे से ज्यादा दर्शक के खुद के अंदर मच जाती है -

"पिछली जंग ने मेरे पिताजी  मुझसे छीन लिया - मैं नहीं रोया।  
मेरी माँ इस दुःख को बर्दास्त न कर सकी - उस गम को भी मैं झेल गया- मैं नहीं रोया।  
क्योंकि  मेरी माँ , मेरा बाप, मेरा दोस्त, मेरा यार - मेरा भाई मेरे साथ था। 
-लेकिन आज मैं लुट गया  - यतीम हो गया। ''

       ऐसे  समय में शोभा पर जो बीती उसका कहना ही क्या।  अमित पर एक दूसरा पहाड़ तब टूट पड़ता है जब उसे पता चलता है की शोभा प्रेगनेंट है। अमित शोभा को समझाना चाहता है पर सवालों के उहापोह में वह खुद घिर जाता है. समय के एक छन की  यह उथल-पुथल उसकी जीवन के धारा को तोड़- मड़ोड़ कर रख देती है। शेखर के अतीत को भविष्य के मंजिल तक पहुचाने का फ़र्ज़  वह अपने ऊपर ओढ़ लेता है। जो अबतक उसका वर्तमान था, अतीत बन जाता है।  .....

                                     *                         *                          *

         चांदनी अमित का खत पढ़ रही है -

…… तुम मेरी हमसफ़र न सही ……हम दो कदम तो साथ चले थे……उन कदमों की कसम ……उन वादो की कसम ……उन वादों की कसम……मुझे भूल जाना चांदनी…… भूल जाना ……'

           एक और दुनिया डूब जाती है -

"…आंसुओं में 
चाँद डूबा 
रात मुरझाई 
ज़िन्दगी में 
दूर तक 
फैली है तन्हाई 
जो गुजरे हम पे वो कम है
तुम्हारे गम का मौसम है…"  

                    *                                      *                                        *

       अमित और शोभा जैसे अपने- अपने हिस्से का एक कर्ज ढो रहे हैं। जैसे दोनों की जिंदगी किसी बंद अँधेरी गुफा में भटक गयी हो … प्रकाश बस सपनों-यादों में कभी कभी चमक जाता है।  आँखों के सामने तो बस अँधेरा ही अँधेरा है … दोनों एक दूसरे से बंध तो गए हैं अब यदि साथ मिलकर रौशनी को तलाशें तो शायद इस अंधी गुफा का मुहाना मिल भी जाए लेकिन पिछली यादों की चकाचौंध रह-रह कर आँखे सुन्न कर जाती हैं। यादों के सामने हकीकत को कोई कैसे नकार सकता है। प्रकृति ऐसा होने नहीं देगी। यदि कोई जबरन नकारना चाहे तो सपनों पे हक़ीक़त की जबरदस्त चोट पड़ती है - अमित और शोभा का एक्सीडेंट हो जाता है। एक्सीडेंट में ये दोनों तो बच जाते हैं पर शोभा के पास जो बीते दिनों की - शेखर की अमानत थी वो चल गुजरती है। लगने लगता है कि यह इमोशनल झटका इन दोनों आपस में थोड़ा करीब ले आएगा। अमित कर्त्तव्य के तौर पर शोभा का ध्यान रखने  लगता है।  शोभा पहले तो अमित को इसके लिए आदर देती है पर धीरे-धीरे उसे अपना मानने लगाती है। किन्तु  बीते दिन आस पास ही मंडरा रहे थे - हॉस्पिटल में जिस डॉक्टर ने दोनों का इलाज किया है वो महाशय चांदनी के पति हैं। चांदनी जो खुद भी यादों को पीछे छोड़ने के जद्दोजहद में थी, एक्सीडेंट की खबर सुनकर खुद को रोक नहीं पाती है और अमित से मिलने हॉस्पिटल चली आती है - भूत फलक पर ऐसे छाने लगता है कि वर्तमान को ढँक ले। अमित बार-बार अवश अतीत को आवाज दे बैठता है -

"हादसा बन के कोई ख्वाब बिखर जाए तो क्या हो !
वक़्त ज़ज्बात को तब्दील नहीं कर सकता 
दूर हो जाने से अहसास नहीं मर सकता 
ये मोहोब्बत है दिलों का रिश्ता 
ऐसा रिश्ता जो जमीनों की तरह 
सरहदों में कभी तक़सीम नहीं हो सकता
तूँ किसी और की रातों का हँसी चाँद सही -
मेरी दुनिया के हर रंग में शामिल तूँ  है 
तुझसे रौशन हैं मेरे ख्वाब - मेरी उम्मीदें -
मैं किसी राह से गुजरूँ मेरी मंजिल तूँ है  "

उत्तर में एक विवश इंकार मिलता है-
"बहुत देर हो चुकी है अमित.... अतीत को आवाज मत दो .... तुम्हारी पत्नी है .... मेरे पति हैं .... दो घर उजरते देख सकते हो....?"
लेकिन यह इंकार रेत पर खिंचे लकीर से ज्यादा कुछ न था जो दिलों में उठते तूफानी लहरों के सामने कहीं न था। दोनों जिंदगियाँ अपने अतीत से बहाने बे-बहाने खुल कर मिलने लगी। वर्तमान में अतीत का प्रवेश आज के साथ नाइंसाफी है।  आखिर वर्तमान कब तक इससे अनजान रहता- पहले थोड़ा खटका हुआ। नजर के देखे को भी दिल झुठलाने की कोशिश करता रहा। लेकिन कब तक। अतीत का भूत दोनों के सर पर ऐसे सवार हुआ की वर्तमान उनके आँखों से ओझल होने लगा।  बंधन लगने लगा। एक समझौता लगाने लगा । और एक दिन उन्होंने वर्तमान को छोर कर अतीत के साथ रहने का फैसला ले लिया। वर्तमान ने चाह कर भी उन्हें नहीं रोका क्योंकि वर्तमान को अपने ऊपर विश्वास था। जाने वालों को जबरदस्ती रोक रखने का हठ वो करते हैं जिन्हे अपने प्रेम पर विश्वास न हो। वर्तमान किसी के लिए बंधन नहीं बनना चाहता था।

           डॉ. साहब ने चांदनी को खुद ही राह दे दी।  बॉम्बे जाते समय चांदनी से उनके उखड़े उखड़े  वार्तालाप का समापन कुछ इस तरह हुआ -
 "….... तुम्हे छोड़ने को जी नहीं कर रहा। मुझे उम्मीद है.… जब मैं घर वापस लौटूंगा तो तुम मुझे यहीं खड़ी मिलोगी। "     

         शोभा ने भी अमित को नहीं रोका - 
"....... मम्मी ! एक बार तरस खा कर उन्होंने मुझसे शादी की थी।  उसका नतीजा तुम भी देख रही हो। और मैं भी।  मैं चाहती हूँ अगर वो आना चाहें तो अपनी मर्जी से।  किसी समझौते या बहाने के सहारे नहीं। "
         समय फिर से एक पिछले मोड़ पर खड़ा था। वह फिर से माँ बनने वाली थी पर वह इस खबर को अमित को खुद से बांधने  के लिए जंजीर नहीं बनने देना चाहती थी।

         लेकिन  डा. साहब को लौटने के समय चांदनी का उनका इन्तजार न कर रही होना शायद मंजूर न था -उनके प्लेन का क्रैश हो जाता है। समय के एक क्षण में फिर से भयंकर उथल-पुथल होती है। अमित और चांदनी दोनों अतीत के स्वस्प्न से जैसे आक्समात् जागते हैं। वर्तमान जब धूं -धूं कर जल रहा हो तो अतीत के स्वप्न का सहारा कोई कब तक लिए रह सकता है। अमित डा. साहेब को बचा पाने की उम्मीद में क्रैश-शाईट पे आग में कूद पड़ता है। शोभा समय के आवेग में अमित को अपने होने वाले बच्चे की कसम देकर रोकना चाहती है। लेकिन आज अमित को वर्तमान की अहमियत का पता चल चुका है। उसे आज वर्तमान के ऊपर विश्वास है।उसे यकीं है की वह चांदनी का वर्तमान उसे लौटा कर अपने वर्तमान के पास वापस आ सकेगा।  और ऐसा होता भी है। आज अमित समझ चुका है की -जिंदगी में सबसे ताकतवर समय कोई है तो वो है वर्तमान। अथवा यह कहें जिंदगी वर्तमान ही है।  वर्तमान ही जीवंत है। भूत को वर्तमान पर हावी होने देना अपराध है - वक़्त के प्रति , जिंदगी के प्रवाह के प्रति।  यह प्रवाह ही तो जीवन है।  वर्तमान में जीना ही आजादी है- काल के बंधन से दिशाओं के बंधन से।
                "मैं  आ गया हूँ शोभा। आया हूँ तो सारी दीवारें तोड़ कर आया हूँ।  अपने अतीत की, अपने प्यार की ,अपने समझौतों की… अब इसके बाद बस एक बात याद रखना -तुम मेरी पत्नी हो , मैं तुम्हारा पति हूँ,  यही सच है , बाकी सब झूठ ..... " नेपथ्य में फिर से संगीत घुल जाता है। 

4 comments:

  1. अच्छा लेख...
    http://savanxxx.blogspot.in

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  2. धन्यवाद् सावन जी

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  3. Bahot khoob....Silsila se shuru hua ye silsila ek silsila ban jaye afsane ki terah ...Jo dayanand ki ho....Arvind.

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Images : courtsy google
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