क्यूँ ठिठक सा गया वक़्त
मेरी जिंदगी के कैनवस पे
अपनी कूचियों से रंग भरते-भरते।
.... दूर आकाश में चमकते सितारों के
चकाचौंध सपने मैं कहाँ मांगता हूँ-
धूसर मिटटी का रंग तो भर देते।
.... कहीं-कहीं मौके-बेमौके कुछ बारिश-
कुछ हरियाली,
सर के ऊपर एक अरूप आकाश
और आँखों के सामने कुछ दूरी पर
केशरिया क्षितिज ;
क्या इतना भी ज्यादा था?
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हर अँधेरी रात के बाद
एक सुबह दिखने का
तुम्हारा ही तो वादा था।
.... तो क्या इस रात तुम खुद सो गए ?
या तुम उकता गए हो
इस लम्बी जिंदगी में
मिला-जुला एक सा ही रंग भरते-भरते ?
कुछ भी हो !
इस अँधेरी सुरंग में मैं और नहीं ठहर सकता।
मुझे इस सस्पेंडेड स्टेट से बाहर निकालो ……
चाहे कैसा भी रंग भरो -
इस तस्वीर को ,
मेरी कहानी को
मुकम्मल तो करो।