It is the era of vast challenges to humanity its presence on earth,be it Pollution, Global Warming Melting of polar ice or rise in Population. Conditions are so worst that if they remain as such then one day life
will vanish from earth. What will happen then?
May be- due to some extraordinary leap of science and technology we will be habitating on a far strange star.in that scenario this poem is written.
A man, loving his motherland,will be narrating his forthcoming generation about his history like such.
Try to understand their pain.
SAVE EARTH
बात आज से सालों बाद की है । तब मनुष्य धरती को छोड़ कर सौरमंडल से बहार किसी सुदूर ग्रह पे वास कर रहा था । अब धरती पर से आम जन-जीवन बिल्कुल समाप्त हो चूका था । हालाँकि लोगों को यहाँ आये हुए लगभग एक शताब्दी पूरी होने को थी फिर भी दो एक वैसे लोग जिन्होंने अपने जीवन एक हिस्सा धरती पर बिताया था, अभी जीवित थे । उन्ही में से एक थे वो शिक्षक । उनका असली नाम तो नहीं मालूम पर उन्हें लोग धरती-पुत्र कह कर पुकारा करते थे ।
एक दिन मैंने खुद को उनकी कक्षा में बैठा पाया । (पता नहीं मैं वहाँ कैसे पहुंचा ।) उनका आज का टॉपिक था हमारा यूनिवर्स । उन्होंने आते ही कहा चलो आज फील्ड में पढ़ाई करेंगे । आज वो कुछ ज्यादा ही भावुक से दिख रहे थे । बच्चों को उन्होंने अपनी पठन सामग्री (learning aid) लेने से भी मना कर दिया । मैं भी उनके साथ बाहर आया । उन्होंने बच्चों को ऊपर आकाश में देखने के लिए कहा । दिन में भी वहां के सूरज के आलावा मैं एक और चमकदार नक्षत्र देख पा रहा था । तभी वो शिक्षक उसकी ओर इंगित करते हुए बोल उठे -
एक दिन मैंने खुद को उनकी कक्षा में बैठा पाया । (पता नहीं मैं वहाँ कैसे पहुंचा ।) उनका आज का टॉपिक था हमारा यूनिवर्स । उन्होंने आते ही कहा चलो आज फील्ड में पढ़ाई करेंगे । आज वो कुछ ज्यादा ही भावुक से दिख रहे थे । बच्चों को उन्होंने अपनी पठन सामग्री (learning aid) लेने से भी मना कर दिया । मैं भी उनके साथ बाहर आया । उन्होंने बच्चों को ऊपर आकाश में देखने के लिए कहा । दिन में भी वहां के सूरज के आलावा मैं एक और चमकदार नक्षत्र देख पा रहा था । तभी वो शिक्षक उसकी ओर इंगित करते हुए बोल उठे -
दूर
जो दिख रहा है एक तारा
जो दिख रहा है एक तारा
वही है सूर्य-
प्रतिनिधि हमारे सौरमंडल का |
उसी की पुत्री पृथ्वी
है हमारी जन्मदात्री माँ |
माँ!
जन्म लेकर कोख से जिसके
पले हैं गोद में जिसके,
जिसने सिखाया है हमे जीना,
जीवित हैं आज भी
बल से जिसकी
सहारे पे जिसकी मधुर स्मृतियों के |
* * *
थी वह शोभायमान-
पर्वतों की श्रृंखलाओं से और गहरी घाटियों से ,
सागरों और नदियों से, जंगलों और झारियों से,
झरनों से, मैदानों से, रेगिस्तानों से |
सूर्य-सी थी आभा जिसकी
और हृदय करुण चंद्रमा- सा |
स्वर्ण युग था वह,
माता के साये में-
हम और हमारे सहोदर
अनेक जीव और पादप
अविरल सुख से जीते थे |
हम थे,
हमारे अपने थे-
आकाश में छाये-
रंग-बिरंगे, फुदकते- चकते पक्षी,
अपनी अलग दुनिया में मस्त-
जल प्रान्त के जीव,
हमारे शैशव क्रीड़ा के सहचर-
वे वन पशु परिवार,
उपहारों की आगार-
वे वन,
वे वनस्पतियाँ |
पूरी पृथ्वी के जीव
थे स्वार्थ रहित. एक दुसरे के साथी |
हम साथ में-
हँसते-रोते-खाते- खेलते
एक ही परिवार की भांति |
हम एक थे, हमारी दुनिया एक थी ,
हमारे ग़म एक थे , हमारी खुशियाँ एक थी |
आहा!
कैसा स्नेहिल, भावपूर्ण वातावरण,
संवेदनाओं का वाह संसार,
अन्यतम स्वजनों का प्यार;
याद कर मन आज भी खिल उठता है |
* * *
परन्तु न जाने क्यों ,
नियतिवश या स्वार्थवश
हम स्वयं को अपने साथियों से कटते चले गए |
सबों के मालिक बन, उनपर राज करने के लिए,
हमने उनके प्यार खो दिए |
सभ्यता की ओर बढ़ चले हम ;
अकेले ही
बड़े तेजी से -
इसके लिए हमने इतना बड़ा मूल्य जो चुकाया था |
स्वार्थवश अंधे हो,
हम बढ़ते गए,
अपने ही धुन में |
हमने स्वयं को पूरे समाज का,
पूरे परिवेश का स्वामी मान लिया |
नियंता की नियति से दूर-
स्वयं को सर्वेसर्वा मान,
हम अपने ही मान पर इतराने लगे|
अहं के नशे में चूर-
हमने प्रकृति की चेतावनियों पर ध्यान ही न दिया,
करते रहे हम अपनी मनमानी|
हमें स्वजनों के स्नेह,
माता की ममता.
की कमी भी न खली |
हम लूटते रहे पृथ्वी की संपदाओं को,
छीन लिये हमने पृथ्वी वासियों से उनके अधिकार,
अकूत संपदाओं से विभूषित वह धरती
होने लगी दीन-हीन निःसार |
हमारा स्वार्थ-सिकुरता गया, सघन होता गया |
सारा समाज कई वर्गों-उपवर्गों, देश-जाति,
में होता गया विभजित |
व्यक्ति-व्यक्ति -
द्वेष और प्रेम (द्वेष जनित)
भय और विश्वाश (भय जनित )
से होता गया ग्रसित
हमारे अपने सुख-शांति का लोप होता गया,
सारी पृथ्वी, उसका सारा वातावरण क्लांत हो उठा |
अचानक महाकाल ने भीषण हुंकार भरा,
सारा ब्रह्माण्ड कांप उठा |
मानव, जो स्वयं को समझ रहा था सर्वसमर्थ,
अपने उस तथाकथित,
सभ्य और विकसित-
जीवन की बागडोर, काल के हांथों में देख
एक ही झटके में उसका वह नशा चूर-चूर हो गया |
काश! समय रहते हमें आया होता होंश |
मैंने देखा उनके आँखों में आंसू भर आये थे।
वो अपने को और ना सम्हाल सके । बच्चों को उन्होंने ने कक्षा में भेज दिया और खुद वहीं पर उस नक्षत्र की ओर देखते हुए खड़े रहे । उनकी आँखों से अनवरत अश्रु धार चल रही थी ।
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