Wednesday, 18 September 2013

हिंसा का बुल्डोज़र

बीच चौराहे पे पड़ी थी उसकी लाश
जो चीख़ -चीख़  बताए जा रही थी  हत्यारों के नाम।
लोगों में आक्रोश था;
चारों ओर  भयानक शोर था;
कोई नहीं सुन पा रहा था  वो भयानक चीख
जो बेतहासा भागदौड़ में दब गई थी।

चप्पे-चप्पे में दहशत और वहशत फैलता जा रहा था
और लाशों की संख्या बढ़  रही थी
उनकी भी वही चीख-
उसी तरह आक्रोश के बुल्डोज़रों तले रौंदी गयी।

यह बुल्डोज़र पुरे शहर को रौंदता रहा
गली- गली , चप्पे - चप्पे
कोई घर अछूता न बचा
हजारों लाशें अब एक साथ चीख रही थीं -
हमें किसी हिन्दू या मुसलमान ने नहीं मारा,
किसी क्षेत्र विशेष के लोगों ने,
या भाषा विशेष, जाति  विशेष,
या किसी वाद के समर्थकों ने हमें नहीं मारा ,
हमारी हत्या कराती हुई  जो हुजूम गुजरी
उसमे वही  गिने चुने चेहरे थे-
कहीं डर, कहीं स्वार्थ,
कहीं ईर्ष्या, तो कहीं लोभ,
कही घमंड और मदान्धता
और कहीं बदले की कुत्सित भावना ,
इनसे से मिलते-जुलते और भी कुछ चेहरे।

पर अब सुनने वाला कोई न बचा था
और बुल्डोज़र  बढ़ चुका  था किसी दूसरे शहर की ओर। 
हिंसा का बुल्डोज़र 
Images : courtsy google
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