मेरे मन!
तूँ किस पिछड़ी हुई सभ्यता का हिस्सा है ?
जो चाँद में तुझे अपनी माशूका का चेहरा दिखता है;
जो उसे घंटों इस हसरत भरी निगाह से देखता है की -
वह छोटा सा चाँद तेरी आँखों में उतर आये ;
जो उसकी मध्धम सी चाँदनी में तूँ डूब जाना चाहता है ;
जो सहम जाता है तूँ -
उसे किसी दैत्याकार प्राणी के मुँह में जाता जान
जब वह खेल रहा होता है कभी
बादलों से लुका -छुपी ।
* * *
आज की समकालीन सभ्यता के लिए तो चाँद "संसाधनो का पिटारा" है।
असीमित पड़तजमीजमन को निगल जाने की हसरत से देखती हैं
- "समकालीन सभ्य आँखें"।
तूँ क्यों नहीं देख पाता है -
चौंधिया कर रख देने वाली ऊर्जा की असीम संभावनाओं को ।
तूँ क्यों नहीं कल्पना कर पाता है-
उन आलीशान कारख़ानों से निकलते धुओं की
जो चादर की तरह ढँक लेने वाले हैं चंद्रमा को
जब समकालीन सभ्यता
उस तन्हा चाँद को अपने आगोश में ले लेगी।
"समकालीन सभ्य आँखें".... बहुत सुंदर लिखा है, आपने !
ReplyDeleteधन्यवाद प्रीत जी !
ReplyDeleteबहुत नवीन लगी कविता भी सोच भी वाह !
ReplyDeleteaap sabon ka abhar
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